महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 347 श्लोक 1-19
सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (347) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
हयग्रीव-अवतार की कथा, वेदों का उद्धार, मधु कैटभ का वध तथा नारायण की महिमा का वर्णन
शौनक ने कहा - सूतनन्दन ! हम लोगों ने षड्विधि ऐश्वर्य से सम्पन्न उन परमातमा श्रीहरि का माहात्म्य सुना और धर्म के घर में उन्होंने ही नर-नारायणरूप से जन्म ग्रहण किया था, इस बात को भी जान लिया। निष्पाप सूतपुत्र ! भगवान महावराह ने जो प्राचीन काल में पिण्डों की उत्पत्ति करके पिण्डदान की मर्यादा चलायी तथा प्रवृत्ति के विषय में जिस विधि की जैसी कल्पना की, वह सब आपके मुख से हम लोगों ने सुना। समुद्र के उत्त-पूर्व भाग में हव्य और कव्य का भोग ग्रहण करने वाले भगवान विष्णु ने महान् हयग्रीवावतार धारण किया था, यह बात आपने पहले मुझसे कही थी। साथ ही यह भी बतायी थी कि भगवान परमेष्ठी ब्रह्मा ने उस रूप का प्रत्यक्ष दर्शन किया था। महान् बुद्धिमानों में श्रेष्ठ सूतपुत्र ! सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाले श्रीहरि ने पूर्वकाल में वह अद्भुत प्रभावशाली रूप क्यों प्रकट किया ? उनका वैसा रूप तो पहले कभी देखने में नहीं आया था। मुने ! अमित बलशाली एवं अपूर्व रूपधारी उन पुध्यात्मा सुरश्रेष्ठ हयग्रीव का दर्शन करके ब्रह्माजी ने क्या किया ? सूतनन्दन ! आपकी बुद्धि बड़ी उत्तम है। महापुरुष भगवान के अवतार सम्बन्धी इस पुरातन ज्ञान के विषय में हम लोगों को संशय हो रहा है। आप इसेका समाधान कीलिये। आपने यह पुध्यमयी कथा कहकर हमलोगों को पवित्र कर दिया था।
सूतपुत्र ने कहा - शौनक जी ! मैं तुमसे वेदतुल्य प्रमाणभूत सारा पूरातन वृत्तन्त कहूँगा, जिसे भगवान व्यास[१]ने राजा जनमेजय को सुनाया था। भगवान विष्णु के हयग्रीवावतार की चर्चा सुनकर तुम्हारी ही तरह राजा जनमेजय को भी संदेह हो गयसा था। तब उन्होंने इस प्रकार प्रश्न किया -।
जनमेजय बोले - सत्पुरुषों में श्रेष्ठ मुने ! ब्रह्माजी ने भगवान के जिस हयग्रीवावतार का दर्शन किया था, उसका प्रादुर्भाव किसलिये हुआ था ? यह मुझे बताइये।।
वैशम्पायनजी ने कहा - प्रजानाथ ! इस जगत् में जितने प्राणी हैं, वे सब ईश्वर के संकल्प से उत्पन्न हुए पाँच महाभूतों से युक्त हैं। विराट्स्वरूप भगवान नारायण इस जगत् के ईश्वर और स्रष्टा हैं, वे ही सब जीवों के अन्तरात्मा, वरदाता, सगुण और निर्गुणरूप हैं। नृपश्रेष्ठ ! अब तुम पन्चभूतों के आत्यनितक प्रलय की बात सुनो। पूर्वकाल में जब इस पृथ्वी का एकार्णव के जल में लय हो गया। जल का तेज में, तेज का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का मन में, मन का व्यक्त (महत्तत्त्व) में, व्यक्त का अव्यक्त प्रकृति में, अव्यक्त का पुरुष में अर्थात् मायाविशिष्ट ईश्वर में और पुरुषका सर्वव्यापी परमात्मा में लय हो गया, उस समय सब ओर केवल अन्धकार-अन्धकार छा गया। उसके सिवा और कुछभी जान नहीं पड़ता था। तम से जगत् का कारणभूत ब्रह्म (परम व्योग) प्रकट हुआ है। तम का मूल है अधिष्ठानभूत अमृततत्त्व। वह मूलभूत अमृत ही तम से युक्त हो सभी नाम-रूप में प्रपन्च प्रकट करता है और विराट् शरीर का आश्रय लेकर रहता है। नृपश्रेष्ठ उसी को अनिरुद्ध कहा गया है। उसी को प्रभाव भी कहते ळैं तथा उसी को त्रिगुणमय अव्यक्त जानना चाहिये। उस अवस्था में विद्याशक्ति से सम्पन्न सर्वव्यापी भगवान श्रीहरि ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर जल में शयन किया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वैशम्पायनजी ने जनमेजय को महाभारत की कथा वेदव्यासजी की आज्ञा से सुनायी थी यहाँ इस कारण ऐसा लिखा है।