महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 20-41

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अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-41 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! जब भगवान की वाणी से ब्रह्माजी का तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, तब फिर साक्षात् नारायण से ही यह धर्म प्रकट हुआ। सुपर्ण नामक ऋषि ने इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह पूर्वक भली-भाँति तपस्या करके भगवान पुरुषोत्तम से इस धर्म को प्राप्त किया। सुपर्ण ने प्रतिदिन इस उत्तम णर्म की तीन आवृत्ति की थी, इसलिये इस व्रत या धर्म को यहाँ ‘त्रिसौपर्ण’ कहते हैं। यह दुष्कर धर्म ऋग्वेद के पाठ में स्पष्ट रूप से पढ़ा गया है। नरश्रेश्ठ ! सुपर्ण से उस सनातन धर्म को इस जगत् के प्राणस्वरूप वायु ने प्राप्त किया। वायु से विघसशी ऋष्सियों ने इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया। उनसे महोदधि को इस उत्तम धर्म की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् यह धर्म फिर लुप्त होकर भगवान नारायण में विलीन हो गया। पुरुष्सिंह ! जब पुनः भगवान के कानों से महात्मा ब्रह्माजी की चैथी बार उत्पत्ति हुई, तब जिस प्रकार इस धर्म का प्रादुर्भाव हुआ था, वह बताता हूँ, सुनो। कहा जाता है, चिन्तन करते समय भगवान के दोनों कानों से ऐ पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ। वही प्रजा की सृष्टि करने वाला ब्रह्मा हुआ। जगदीश्वर नारायण ने ब्रह्मा से कहा- ‘बंटा ! तुम अपने मुख से लेकर पैर तक के अंगों से समस्त प्रजाकी सृष्टि करो। ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले पुत्र ! मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा और तुम्हारे भीतर तेज एवं बल की वृद्धि करता रहूँगा तुम मुझसे इस सात्वत नामक धर्म को ग्रहण करो और उसके द्वारा विधिपूर्वक सत्ययुग की सृष्टि करके उसकी स्थापना करो’। तदनन्तर ब्रह्मा ने भगवान श्रीहरि को नमस्कार किया और उन्हीं नारायण देव के मुख से प्रकट आरण्यक, रहस्य तथा संग्रह सहित उस श्रेष्ठ धर्म का उपदेश ग्रहण किया। अमित लेजस्वी ब्रह्मा को इस धर्म का उपदेश देकर उस समय भगवान्ने उनसे कहा- ‘तुम निष्काम भाव से सारे कर्म करते हुए युगधर्मों के प्रवर्तक बनो’। यह आदेश देकर वे अज्ञानान्धकार से परे विराजमान अपने परम अव्यक्त धाम को चले गये। तदनन्तर वरदायक देवता लोकपितामह ब्रह्मा ने सम्पूर्ण चराचर लोकों की सृष्टि की।

फिर तो सृष्टि के आरम्भ में कल्याणकारी कृतयुग की प्रवृत्ति हुई और तब से सात्वत धर्म सारे संसार में व्याप्त हो गया। लोस्रष्टा ब्रह्मा ने उसी आदिधर्म द्वारा देवेश्वर भगवान नारायण हरि की आराधना की। फिर इस धर्म की प्रतिष्ठा के लिये समस्त लोकों के हित की कामना से उन्होंने स्वराचिषमुनि को उस समय इस धर्म का उपदेश किया। नरेश्वर ! उन दिनों स्वारोचिष मनु ही सम्पूर्ण लोकों के अधिपति एवं प्रभु थे। उन्होंने शान्तभाव से पहले अपने पुत्र शंखनाद को स्वयं इा धर्म का ज्ञान प्रदान किया। भारत् ! मिर शंखनाद ने भी अपने औरस पुत्र दिक्याल सुवर्णाभ को इस धर्म का अध्ययन कराया। इसके बाद त्रेतायुग प्राप्त होने पर वह धर्म फिर लुप्त हो गया। नृपश्रेष्ठ ! फिर पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने नासिका के द्वारा जब पाँचवाँ जन्म ग्रहण किया, तब स्वयं कमलनयन भगवान नारायण हरि ने ब्रह्माजी के सामने इस धर्म का उपदेश दिया। नरेश्वर ! तत्पश्चात् भगवान सनत्कुमार ने उनसे उस सात्वत धर्म का उपदेश ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठ ! सनत्कुमार से वीरण प्रजापति ने कृतयुग के आदि में इस धर्म का उपदेश ग्रहण किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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