महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 351 श्लोक 16-23
एकञ्चाशदधिकत्रिशततम (351) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
उसी का पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेंद्रिय, पाँच भूत, मन और बुद्धि - इन सत्रह तत्त्वों के राशिभूत सूक्ष्म शरीर से संयोग होता है। वही कर्मभेद से देव-तिर्यक् आदि भावों को प्राप्त होने के कारण बहुविध बताया गया है। इस प्रकार तुम्हें क्रमशः पुरुष की एकता और अनेकता की बात बतायी गयी। जो लोकतन्त्र का सम्पूर्ण धाम या प्रकाशक है, वह परम पुरुष ही वेदनीय (जानने योग्य) परम तत्त्व है। वही ज्ञाता और वही ज्ञातव्य है। वही मनन करने वाला और वही मननीय वस्तु है। वही भोक्ता और वही भोज्य पदार्थ है। वही सूँघने योग्य वस्तु है। वही स्पर्श करने वाला तथा वही स्पर्श के योग्य वस्तु है। वही द्रष्टा और द्रष्टव्य है। वही सूननेवाला और सुनाने योग्य वस्तु है। वही ज्ञाता और ज्ञेय है तथा वही सगुण और निर्गुण है। तात ! जिसे सम्यक् प्रधान तत्त्व कहा गया है, वह भी यह पुरुष ही है। यह नित्य सनातन और अविनाशी तत्त्व है। वही मुझ विधाता के आदि विधान को उत्पन्न करता है। विद्वान् ब्राह्मण उसी को अनिरुद्ध कहते हैं। लोक में सकाम भाव से जो वैदिक सत्कर्म किये जाते हैं, वे उस अनिरुद्धात्मा पुरुष की प्रसन्नता के लिये ही होते हैं - ऐसा चिन्तन करना चाहिये। सम्पूर्ण देवता और शान्त स्वभाव वाले मुनि यज्ञशाला में यज्ञभागों द्वारा उसी का यजन करते हैं। मैं प्रजाओं का आदि ईश्वर ब्रह्मा उसी परम पुरुष से उत्पन्न हुआ हूँ और मुझसे तुम्हारी उत्पत्ति हुई है। पुत्र ! मुझसे यह चराचर जगत् तथा रहस्य सहित सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं। वासुदेव आदि चार व्यूहों में विभक्त हुए वे परम पुरुष ही जैसी इच्छा होती है, वैसी क्रीड़ा करते हैं। इसी तरह वे भगवान अपने ही ज्ञान से जानने में आते हैं। पुत्र ! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने यथावत् रूप से ये सब बातें बतायी हैं। सांख्य और योग में इस विषय का यथार्थ रूप से वर्णन किया गया है।
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