महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-15
षट्त्रिंश (36) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
स्वायम्भुव मनु के कथनानुसार धर्म का स्वरुप , पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित, अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन तथा दान के अधिकारी एवं अनाधिकारी का विवेचन
पितामह क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य किस वस्तु का दान उत्तम माना जाता है कौन दान का पात्र है अथवा कौन अपात्रय सब मुझे बताइये । राजन इस विषय में लोग प्रजापति मनु और सिद्ध पुरुषों के संवाद रुप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते है । पहले की बात है एक समय बहुत से व्रत परायण तपस्वी ॠषि एकत्र हो प्रजापति राजा मनु के पास गये और उन बैठे हुए नरेश से धर्म की बात पूछाते हुए बोले । प्रजापते अन्न क्या है पात्र कैसा होना चाहिये दान, अध्ययन और तप का क्या स्वरुप है क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य यह सब हमें बताइये । उनके इस प्रकार पूछने पर भगवान स्वायम्भुव मनु ने कहा– महर्षियों मैं संक्षेप और विस्तार के साथ धर्म का यथार्थ स्वरुप बताता हूं आप लोग सुने । जिनके दोषों का विशेष रुप से उल्लेख नहीं हुआ है, ऐसे कर्म बन जाने पर उन के दोष के निवारण के लिये जप, होम, उपवास, आत्मज्ञान, पवित्र नदियों मे स्नान तथा जहां जप–होम आदि में तत्पर रहने वाल पुण्यात्मा पुरुष रहने हो उस स्थान का सेवन– ये सामान्य प्रायश्चित हैं ये सारे कर्म पुण्य दायक है पर्वत सुवर्ण प्राशन (सोने से स्पर्श कराये हुए जल का पान ) रत्न आदि से मिश्रित जल में स्नान, देव स्थानों की यात्रा और घृतपान ये सब मनुष्य को शीघ्र ही पवित्र कर देते है ।
इसमें संशय नहीं हैं । विद्वान पुरुष कभी गर्व न करे और यदि दीर्घायु की इच्छा हो तो तीन रात तप्त् कृच्छ व्रत की विधि से गरम गरम दूध घृत और जल पीये । बिना दी हुई वस्तु को न लेना दान, अध्ययन और तप में तत्पर रहना किसी भी प्राणी की हिंसा न करना सत्य बोलना क्रोध त्याग देना और यज्ञ करना ये सब धर्म के लक्षण है । एक ही क्रिया देश और काल के भेद से धर्म या अधर्म हो जाती है चोरी करना झूठ बोलना एवं हिंसा करना आदि अधर्म में भी अवस्था विशेष में धर्म माने गये हैं । इस प्रकार विज्ञ पुरुषों की दृष्टि में धर्म और अधर्म दोनो ही देश काल के भेद से दो दो प्रकार के है धर्म में जो अप्रवृति और प्रवृति होती है ये भी लोक और वेद के भेद से दो प्रकार की है। (अर्थात लौकिकी अप्रवृति और लौकिकी प्रवृति वैदि की अप्रवृति और वैदिकी प्रवृति ) वेदीकी अप्रव्रति का फल है ममत्व और वैदिकी की प्रवृति के अर्थात सकाम कर्म का फल है जन्म मरण रुप संसार लोकीकी की अप्रवृति और प्रवृति ये दोनों यदि अशुभ हो तो उनका फल भी जानना चाहिए क्यूंकि ये दोनों ही रुप होती है । देवताओं के निमित्त देवयुक्त प्राण और प्राणदाता इन चारों की अपेक्षा पूर्वक जो कुछ किया जाता है उससे अशुभ का ही फल होता है। प्राणों पर संशय न होने की स्थिति अथवा किसी प्रत्यक्ष लाभ के लिए यहाँ अशुभ कर्म बन जाता है उसे इच्छा पूर्वक करने के कारण उसके दोष की निवृति के लिये प्रायश्चित का विधान है ।
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