महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-24
चत्वारिंश (40) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युधिष्ठर का राज्य अभिषेक
वैशम्पायनजी कहते हैं– जनमेजय तदंतर कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर खेद और चिंता से रहित हो पूर्व की ओर मुख करके प्रसन्नता पूर्वक सुवर्ण के सुंदर सिहासन पर विराजमान हुए। तत्पश्चात शत्रुओं का दमन करने वाले साहित्य और भगवान श्रीकृष्ण ने सोने के जगमगाते हुए सुंदर आसन पर उन्हीं की और मुख करके बैठे। राजा युधिष्ठिर को बीच में करके महा मनस्वी भीमसेन और अर्जुन दो मनीमय मनोहर पीठो पर विराजमान हुए । एक और हाथी दांत के बने हुए सवर्ण विभूषित शुभ सिंहासन पर नकुल और सहदेव के साथ माता कुंती भी बैठ गई । इसी प्रकार सुधर्मा, विदूर, धौम्य और कुरु राज धृत राष्ट्र अग्नि के समान तेजस्वी पृथक पृथक सिंहासनो पर विराजमान हुए । युयुत्सु, संजय कोर यश्विनी गांधारी- ये सब लोग उधर ही बैठे जिस और राजा धृतराष्ट्र थे ।धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने सिंहासन पर बैठकर श्वेत पुष्प स्वस्तिक, अक्ष्त, भूमि, स्वर्ण, रजत एव मणि का स्पर्श किया। इसके बाद मंत्री सेनापति आदि सभी प्रकृतियों ने पुरोहित को आगे कर के बहुत सी मांगलिक सामग्री साथ लिये धर्मराज युधिष्ठर का दर्शन किया। मिट्टी, सुवर्ण, तरह तरह के रत्न राज्याभिषेक की सामग्री सब प्रकार के आवश्यक समान सोनी चांदी तांबे और मिट्टी के हुए जल पूर्ण कलश, फूल, लाजा (खील) कुशा, गोरस, समी, पीपल और पलाश की सुविधाएँ मधु, अमृत, गूलर की लकडी के स्त्रुवा तथा स्वर्ण जटिल शंख यह सब वस्तुएं वे संग्रह करके लाए थे। भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से पुरोहित धौम्यजी ने एक वेदी बनायी जो पूर्व और उत्तर दिशा की और निची थी उसे गोबर से लिप कर उसके द्वारा उस पर रेखा की इस प्रकार विधि का संस्कार करके सर्वतो भद्र नामक एक चौकी पर बारम्बार श्वेत वस्त्र बिछा कर उसके ऊपर महात्मा युधिष्ठिर तथा द्रुपद कुमारी श्रीकृष्ण को बिठाया उस चौकी के पाये और बैठने की आधार बहुत मजबूत थे स्वर्ण जटित होने के कारण आसन प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहा था
बुद्धिमान पुरोहित ने वेदी पर अग्नि को स्थापित करके उसमें विधि और मंत्र के साथ आहुती दी। तत्पश्चात दशार्हवंशी श्रीकृष्ण ने उठकर जिसकी पूजा की गई थी वह पंच जन्य शंख हाथों में ले उसके जल से पृथ्वीपति कुंती पुत्र युधिष्ठिर के अभिषेक किया फिर राजा धृतराष्ट्र तथा प्रकृति वर्ग के अन्य सब लोगों ने अभिषेक का कार्य संपन्न किया। श्रीकृष्ण की आज्ञा से पांच्यजन्य शंख द्वारा अभिषेक हो जाने पर उसे भाइयों सहित राजा युधिष्ठिर का मुख कितना सुंदर दिखाई देने लगा मानो नेत्रों से अमृत की वर्षा हो रही हो। तदन्तर वहां बाजा बजाने वाले लोग प्रणव आनक तथा दुन्दु भिनि की ध्वनि करने लगे धर्मराज युधिष्ठिर ने धर्मानुसार स्वागत सत्कार स्वीकार किया। बहुत दक्षिणा देने वाले राजा युधिष्ठिर ने वेदांत अध्ययन से संपन्न तथा धैर्य और शील से संयुक्त ब्रह्ममणे द्वारा स्वस्ति वाचन करा कर उन का विधिपूर्वक पूजन किया और उन्हें एक हजार अशर्फियां दान की । राजन इससे प्रसन्न होकर उन ब्राह्माणों ने उनके कल्याण का आशीर्वाद दिया और जय जयकार की। वे सभी ब्राह्माण हंस के समान गंभीर स्वर में बोलते हुए राजा युधिष्ठिर की इस प्रकार प्रशंसा करने लगे।पांडूनंदन महाबाहु युधिष्ठिर तुम्हारी विजय हुई ये बड़े भाग्य की बात है महातेजस्वी नरेश तुमने पराक्रम से अपना धर्मानुकूल राजी कर लिया ये सभी सौभाग्य का सूचक है । गाण्डीवधारी अर्जुन पांडुपुत्र भीमसेन तुम और माद्रीपुत्र पांडुकुमार नकुल- सहदेव ये सभी शत्रुओं पर विजय पा कर इस वीर विनाशक संग्राम से कुशल पूर्वक बच्चों के महान संत आगे की बात समझ लेनी चाहिए भारत अब आगे जो कार्य करने हैं उन सबको शीघ्र पूर्ण कीजिए। भारतनंदन तत्पश्चात समागत सज्जनों ने धर्मराज युधिष्ठिर का पुन सत्कार किया फिर उन्होंने के सुहृदों के साथ अपने विशाल राज्य का भार हाथो में ले लिया ।
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