महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-20
पन्चचत्वारिंश (45) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युधिष्ठिर के द्वारा ब्राह्मणों तथा आश्रितों का सत्कार एवं दान और श्री कृष्ण के पास जाकर उनकी स्तुति करते हुए कृतज्ञता-प्रकाशन
जनमेजय ने पूछा - विप्रवर ! राज्य पाने के पश्चात् धर्मपुत्र महाबाहु युधिष्ठिर ने और कौन-कौन सा कार्य किया था ? यह मुझे बताने की कृपा करें । महर्षे ! तीनों लोकों के परम गुरु वीरवर भगवान् श्रीकृष्ण ने भी क्या-क्या किया था ? यह भी विस्तार पूर्वक बतावें।
वैशम्पायनजी कहते हैं - निष्पाप नरेश ! भगवान् श्रीकृष्ण को आगे करके पाण्डवों ने जो कुछ किया था, उसे ठीक-ठीक बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। महाराज ! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने राज्य प्राप्त करने के बाद सबसे पहले चसरों वर्णों को योग्यतानुसार अपने-अपने स्थान ( कर्तव्यपालन ) में स्थिर किया। तत्पश्चात् सहस्त्रों महामना स्नातक ब्राह्मणों में से प्रत्येक को पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दिलवायीं। इसी तरह जिनकी जीविका का भार उन्हीं के ऊपर था, उन भृत्यों, शरणागतों तािा अतिथियों को उन्होंने इच्छानुसार भोग्यपदार्थ देकर संतुष्ट किया। दीन-दुखियों तथा पूछे हुए प्रश्नों का उत्तर देने वाले ज्योतिषियों को भी संतुष्ट किया। अपने पुरोहित धौम्य जी को उन्होंने दस हजार गौएँ, धन, सोना, चाँदी तथा नाना प्रकार के वस्त्र दिये। महाराज ! राजा ने कृपाचार्य के साथ वही बर्ताव किया, जो एक शिष्य को अपने गुरु के साथ करना चाहिये। नियमपूर्वक व्रत का पालन करने वाले युधिष्ठिर ने विदुर जी का भी पूजनीय पुरुष की भाँति सम्मान किया। दाताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने समस्त आश्रित जनों को खाने-पीने की वसतुएँ, भाँति-भाँति के कपड़े, शय्या तथा आसन देकर संतुष्ट किया। नृपश्रेष्ठ ! महायशस्वी राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार प्राप्त हुए धन का यथोचित विभाग करके उसकी शानित की तथा युयुत्सु एवं धृतराष्ट्र का विशेष सत्कार किया।
धृतराष्ट्र, गान्धारी तथा विदुरजी की सेवा में अपना सारा राज्य समर्पित करके राजा युधिष्ठिर स्वस्थ एवं सुखी हो गये। भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार सम्पूर्ण नगर की प्रजा को प्रसन्न करके वे हाथ जोड़कर महात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के पास गये। उन्होंने देखा, भगवान् श्रीकृष्ण मणियों तथा सुवर्णों से भूषित एक बडत्रे पलंग पर बैठे हैं, उनकी श्याम सुन्दर छवि नील मेघ के समान सुशोभित हो रही है। उनका श्रीविग्रह दिव्य तेज से उद्भासित हो रहा है।
एक-एक अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित है। श्याम शरीर पर रेशमी पीताम्बर धारण किये भगवान् सुवर्णजटित नीलम के समान जान पड़ते हैं। उनके वक्षःस्थल पर स्थित हुई कौस्तुभमणि अपना प्रकाश बिखेरती हुई उसी प्रकार उनकी शोभा बढ़ाती है, मानो उगते हुए सूर्य उदयाचल को प्रकाशित कर रहे हों। भगवान् की उस दिव्य भाँकी की तीनों लोकों में कहीं उपमा नहीं थी। राजा युधिष्ठिर मानवविग्रहधारी उन परमात्मा विष्णु के समीप जाकर मुसकराते हुए मधुर वाणी में इस प्रकार बोले- । ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ अच्युत ! आपकी रात सुख से बीती है न ? सारी ज्ञानेन्द्रियाँ प्रसन्न तो हैं न ? ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण ! बुद्धिदेवी ने आपका आश्रय लिया है ? प्रभो ! हमने आपकी ही कृपा से राज्य पाया है और यह पृथ्वी हमारे अधिकार में आयी है। भगवन् ! आप ही तीनों लोकों के आश्रय और पराक्रम हैं। आपकी ही दया से हमने विजय तथा उत्तम यश प्रापत किया हैं और धर्म से भ्रष्ट नहीं हुए हैं’। शत्रुओं का दमन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार कहते चले जा रहे थे; परंतु भगवान् ने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। वे उस समय ध्यान में मग्न थे।
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