महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 55 श्लोक 1-22
पञ्चपञ्चाशत्तम (55) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
भीष्म का युधिष्ठिर के गुणकथनपूर्वक उनको प्रश्न करने का आदेश देना, श्रीकृष्ण का उनके लज्जित और भयभीत होने का कारण बताना और भीष्म का आश्वासन पाकर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना
वैशम्पायनजी कहते है- राजन्! श्रीकृष्ण की बात सुनकर कुरूकुल का आनन्द बढाने वाले महातेजस्वी भीष्मजी ने कहा- गोविन्द! आप सम्पूर्ण भूतों के सनातन आत्मा है। आपके प्रसाद से मेरी वाक्शक्ति सुदृढ हैं और मन भी स्थिर हो गया है; अतः मैं समस्त धर्मों का प्रवचन करूँगा। धर्मात्मा युधिष्ठिर मुझसे एक एक करके धर्मों के विषय में प्रश्न करें, इससे मुझे प्रसन्नता होगी और मैं सम्पूर्ण धर्मों का उपदेश कर सकूँगा। जिन राजर्षिशिरोमणि धर्मपरायण महात्मा युधिष्ठिर का जन्म होने पर सभी महर्षि हर्ष से खिल उठे थे, वे ही पाण्डुपुत्र मुझसे प्रश्न करें। जिनके यश का प्रताप सर्वत्र छा रहा है, उन समस्त धर्माचारी कौरवों में जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। जिनमें धैर्य, इन्द्रियसंयम, ब्रह्मचर्य, क्षमा, धर्म ओज और तेज सदा विद्यमान रहते है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। जो सम्बन्धियों, अतिथियों, भृत्यों तथा शरणागतों का सदा सत्कार पूर्वक विशेष सम्मान करते है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। जिनमें सत्य, दान, तप, शूरता, दक्षता तथा असम्भ्रम ( स्थिरचित्ता )- ये समस्त सद्गुण सदा मौजूद रहते है, वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। जो न तो कामना से, न क्रोध से, न भय से और न किसी स्वार्थ के ही लोभ से अधर्म करते है, वे धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करें। जिनमें सदा ही सत्य, सदा ही क्षमा और सदा ही ज्ञान की स्थिति है, जो निरन्तर अतिथिसत्कार के प्रेमी है और सत्पुरुषोंको सदा दान देते रहते हैं वे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर मुझमे प्रश्न करें। जिन्होंने शास्त्रोंके रहस्य का श्रवण किया है जो सदा ही यज्ञ स्वाध्याय और धर्म में लगे रहने वाले तथा क्षमाशील हैं, वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर मुझसे प्रश्न करे।
भगवान श्रीकृष्ण बोले- प्रजानाथ! धर्मराज युधिष्ठिर बहुत लज्जित है, वे शापके भय से डरे होने के कारण आपके निकट नहीं आ रहे हैं। प्रजापालक भीष्म! ये लोकनाथ युधिष्ठिर जगत् का संहार करके शाप के भय से त्रस्त हो उठे हैं; इसीलिये आपके निकट नहीं आते हैं। पूजनीय माननीय गुरूजनों, भक्तों तथा अघ्र्य आदि के द्वारा सत्कार करने योग्य सम्बन्धियों एवं बन्धु- बान्धवों का बाणों द्वारा भेदन करके भय के मारे ये आपके पास नही आ रहे हैं।
भीष्मजी ने कहा- श्रीकृष्ण! जैसे दान, अध्ययन और तप ब्राह्मणों का धर्म है, उसी प्रकार समरभूमि में शत्रुओं के शरीर को मार गिराना क्षत्रियों का धर्म है। जो असत्य के मार्ग पर चलने वाले पिता ( ताऊ चाचा ), बाबा, भाई, गुरूजन, सम्बन्धी तथा बन्धु बान्धवों को संग्राम में मार डालता है, उसका वह कार्य धर्म ही है। केशव! जो क्षत्रिय लोभवश धर्ममर्यादा का उल्लंघन करने वाले पापाचारी गुरूजनों का भी समरांगण में वध कर डालता है, वह अवश्य ही धर्म का ज्ञाता है। जो लोभवश सनातन धर्ममर्यादा की और दृष्टिपात नहीं करता, उसे जो क्षत्रिय समरभूमि में मार गिराता है, वह निश्चय ही धर्मज्ञ है। जो क्षत्रिय युद्धभूमि में रक्तरूपी जल, केशरूपी तृण, हाथीरूपी पर्वत और ध्वजरूपी वृक्षों से युक्त खून की नदी बहा देता है, वह धर्म का ज्ञाता है। संग्राम में शत्रु के ललकारने पर क्षत्रिय बन्धु को सदा ही युद्ध के लिये उद्यत रहना चाहिये। मनुजी ने कहा है कि युद्ध क्षत्रिय के लिये धर्म का पोषक, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और लोक में यश फैलाने वाला है।
वैशम्पायनजी कहते है- राजन्! भीष्म जी के ऐसा कहने पर धर्मपुत्र युधिष्ठिर उनके पास जाकर एक विनीत पुरूष के समान उनकी दृष्टि के सामने खडे हो गये। फिर उन्होंने भीष्म जी के दोनों चरण पकड लिये। तब भीष्म ने उन्हें आश्वासन देकर प्रसन्न किया और उनका मस्तक सूँघकर कहा- बेटा! बैठ जाआ। तत्पश्चात सम्पूर्ण धनुर्धरों में श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्मजी ने उनसे कहा- तात! मैं इस समय स्वस्थ हूँ, तुम मुझसे निर्भय होकर प्रश्न करो। कुरूश्रेष्ठ! तुम भय न मानो।
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