महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 56 श्लोक 34-50

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षट्पञ्चाशत्तम (56) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 34-50 का हिन्दी अनुवाद

जो मनुष्य ब्राह्मणों के प्रति भक्ति रखते है, वे सबके प्रिय होते है। राजाओं के लिये ब्राह्मण के भक्तों का संग्रह करने से बढकर दूसरा कोई कोश नहीं है। महाराज! मरू ( जलरहित भूमि ), जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य - इन छः प्रकार के दुर्गों में मानवदुर्ग ही प्रधान है। शास्त्रों के सिद्धान्त को जानने वाले विद्वान उक्त सभी दुर्गों में मानव दुर्ग को ही अत्यन्त दुर्लंध्य मानते है। अतः विद्वान राजा को चारों वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है। बेटा! तुम्हें सदा और सब और क्षमाशील ही नहीं बने रहना चाहिये; क्योंकि क्षमाशील हाथी के समान कोमल स्वभाव वाला राजा दूसरों को भयभीत नहीं कर सकने के कारण अधर्म के प्रसार में ही सहायक होता है। महाराज! इसी बात के समर्थन में बार्हस्पत्य शास्त्र का एक प्राचीन श्लोक पढा जाता है। मैं उसे बता रहा हूँ, सुनो। नीच मनुष्य क्षमाशील राजा का सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते रहते है, जैसे हाथी का महावत उसके सिर पर ही चढे रहना चाहता है। जैसे वसन्त ऋतु का तेजस्वी सूर्य न तो अधिक ठंडक पहुँचाता है और न कडी धूप ही करता है, उसी प्रकार राजा को भी न तो बहुत कोमल होना चाहिये और न अधिक कठोर ही। महाराज! प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इन चारों प्रमाणों के द्वारा सदा अपने पराये की पहचान करते रहना चाहिये। प्रचुर दक्षिणा देने वाले नरेश्वर! तुम्हें सभी प्रकार के व्यसनों को *त्याग देना चाहिये; परंतु साहस आदि का भी सर्वथा प्रयोग न किया जाय, ऐसी बात नहीं है ( क्योंकि शत्रुविजय आदि के लिये उसकी आवश्यकता है ); अतः सभी प्रकार के व्यसनों की आसक्ति का परित्याग करना चाहिये। व्सनों में आसक्त हुआ राजा सदा सब लोगों के अनादर का पात्र होता है और जो भूपाल सबके प्रति अत्यन्त द्वेष रखता है, वह सब लोगों को उद्वेगयुक्त कर देता है।।43।।महाराज! राजा का प्रजा के साथ गर्भिणी स्त्री का सा बर्ताव होना चाहिये। किस कारण से ऐसा होना उचित हैं, यह बताता हूँ, सुनो। जैसे गर्भवती स्त्री अपने मन को अच्छे लगने वाले प्रिय भोजन आदि का परित्याग करके केवल गर्भस्थ बालक के हित का ध्यान रखती है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को भी चाहिये कि निःसंदेह वैसा ही बर्ताव करे। कुरूश्रेष्ठ! राजा अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग करके जिसमें सब लोगों का हित हो वहीं कार्य करे। पाण्डुनन्दन! तुम्हें कभी भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिये। जो अपराधियों को दण्ड देने में संकोच नहीं करता और सदा धैर्य रखता है, उस राजा को कभी भय नहीं होता।

वक्ताओं में श्रेष्ठ राजसिंह! तुम्हें सेवको के साथ अधिक हँसी-मजाक नहीं करना चाहिये; इसमें जो दोष हैं, वह मुझसे सुना। राजा से जीविका चलाने वाले सेवक अधिक मुँह लगे हो जाने पर मालिक का अपमान कर बैठते है। वे अपनी मर्यादा में स्थिर नहीं रहते और स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन करने लगते है। वे जब किसी कार्य के लिये भेजे जाते है तो उसकी सिद्धि में संदेह उत्पन्न कर देते है। राजा की गोपनीय त्रुटियों को भी सबके सामने ला देते है। जो वस्तु नहीं माँगनी चाहिये उसे भी माँग बैठते है, तथा राजा के लिये रखे हुए भोज्य पदार्थों को स्वयं खा लेते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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