महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 67-80

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 67-80 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्य अकेला होकर भी किस प्रकार उत्थान (उन्नति) करें? इसका विचार, सत्यता, उत्सवों और समाजों में मधुर वाणी का प्रयोग तथा गृहसम्बन्धी क्रियाएँ-इन सबका वर्णन किया गया हैं। भरतवंश के सिंह युधिष्ठिर! समस्त न्यायालयों में जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विचार होतें हैं तथा वहाँ जो राजकीय पुरूषों के व्यवहार होते हैं, उन सबका प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये। इसका भी उक्त शास्त्र में उल्लेख हैं। ब्राह्मणों को दण्ड़ न देने का, अपराधियों को युक्तिपूर्वक दण्ड़ देने का, अपने पीछे जिनकी जीविका चलती हो उनकी, अपने जाति-भाइयों की तथा गुणवान् पुरूषों की भी उन्नति करने का उस ग्रन्थ में उल्लेख हैं। राजन्! पुरवासियों की रक्षा, राज्य की वृद्धि तथा द्वादश[१] राजमण्ड़लों के विषय में जो चिन्तन किया जाता हैं, उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख हुआ हैं। वैद्यक शास्त्र के अनुसार बहत्तर प्रकार की शारीरिक चिकित्सा तथा देश, जाति और कुल के धर्मों का भी भली-भाँति वर्णन किया गया हैं। प्रचुर दक्षिणा देने वाले युधिष्ठिर! इस ग्रन्थ में धर्मं अर्थ, काम और मोक्ष का, इनकी प्राप्ति के उपायों का तथा नाना प्रकार की धन-लिप्साका भी वर्णन हैं। इस ग्रन्थ में कोश की वृद्धि करने वाले जो कृषि, वाणिज्य आदि मूल कर्म हैं, उनके करने का प्रकार बताया गया हैं। माया के प्रयोग की विधि समझायी गयी हैं। स्त्रोंतजल और अस्थिरजल के दोषों का वर्णन किया गया हैं। राजसिंह! जिन-जिन उपायों द्वारा यह जगत् सन्मार्ग से विचलित न हो, उन सबका इस नीतिशास्त्र में प्रतिपादन किया गया हैं। इस शुभ शास्त्र का निर्माण करके जगत् स्वामी भगवान ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार बोले-देवगण! सम्पूर्ण जगत् के उपकार तथा धर्मं, अर्थं एवं काम की स्थापना के लिये वाणी का सारभूत यह विचार यहाँ प्रकट किया गया। दण्ड़-विधान के साथ रहने वाली यह नीति सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करने वाली हैं। यह दुष्टों के निग्रह और साधु पुरूषों के प्रति अनुग्रह में तत्पर रहकर सम्पूर्ण जगत् में प्रचलित होगी। इस शास्त्र के अनुसार दण्ड़ के द्वारा जगत् का सन्मार्ग पर स्थापन किया जाता हैं अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्ग में दण्ड़ की स्थापना करता है़; इसलिये यह विद्या दण्ड़नीति के नाम से विख्यात हैं। इसका तीनों लोकों में विस्तार होगा। यह विद्या संधि-विग्रह आदि छहों गुणों का सारभूत हैं। महात्माओं में इसका स्थान सबसे आगे होंगा। इस शास्त्र में धर्मं, अर्थं, काम और मोक्ष-इन चारों पुरूषार्थों का निरूपण किया गया हैं। तदनन्तर सबसे पहले भगवान शंकर ने इस नीतिशास्त्र को ग्रहण किया। वे बहुरूप, विशालाक्ष, शिव, स्थाणु, उमापति आदि नामों सें प्रसिद्ध हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पहला शत्रु राजा, दूसरा मित्र राजा, तीसरा शत्रु का मित्र राजा, चैथा मित्र का मित्र राजा, पाँचवां शत्रु के मित्र का मित्र राजा, छठा अपने पृष्ठभाग की रक्षा के लिये स्वयं उपस्थित राजा, आठवाँ अपने पक्ष में बुलाने पर आया हुआ राजा, नवाँ शत्रुपक्ष में बुलाने पर आया हुआ राजा, दसवाँ स्वयं विजयाभिलाषी नरेश, ग्यारहवाँ अपने और शत्रु दोनों की ओर से मध्यस्थ राजा, बारहवाँ सबसे अधिक शक्तिशाली एवं उदासीन राजा-ये द्वादश राजमण्ड़ल कहे गये हैं।

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