महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-14
एकषष्टितम (61) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
आश्रम-धर्म का वर्णन
भीष्मजी कहते हैं-सत्यपराक्रमी महाबाहु युधिष्ठर! अब तुम चारों आश्रमों के नाम और कर्म सुनो। ब्रह्मचर्य, महान् आश्रम गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और भैक्ष्यचर्य (संन्यास)-ये चार आश्रम हैं। चैथे आश्रम संन्यासका अवलम्बन केवल ब्राह्मणोंने किया है।(ब्रह्मचर्य-आश्रममें) चूडाकारण-संस्कार और उपनयनके अनन्तर द्विजत्वको प्राप्त हो वेदाध्ययन पूर्ण करके (समावर्तन के पश्चात् विवाह करे, फिर) गार्हस्थ्य आश्रम में अग्रिहोत्र आदि कर्म सम्पन्न करके इन्द्रियों को संयम में रखते हुए मनस्वी पुरुष स्त्री को साथ लेकर अथवा बिना स्त्री के ही गृहस्थाश्रम से कृतकृत्य हो वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करे। वहाँ धर्मज्ञ पुरुष आरण्यकशास्त्रों का अध्ययन करने वानप्रस्थ-धर्मका पालन करे। तत्पश्चात् ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक उस आश्रम से निकल जाय और विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण कर ले। इस प्रकार संन्यास लेनेवाला पुरुष अविनाशी ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है। राजन्! विद्वान् ब्राह्मण को ऊध्र्वरेता मुनियों द्वारा आचरणमें लाये हुए इन्हीं साधनों का सर्वप्रथम आश्रय लेना चाहिये। प्रजानाथ! जिसने ब्रह्मचर्य का पालन किया है, उस ब्रह्मचारी ब्राह्मण के मनमें यदि मोक्ष की अभिलाषा जाग उठे तो उसे ब्रह्मचर्य-आश्रम से ही संन्यास ग्रहण करने का उत्तम अधिकार प्राप्त हो जाता है। संन्यासी को चाहिये कि वह मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए मुनिवृत्ति से रहे। किसी वस्तुकी कामना न करे। अपने लिये मठ या कुटी न बनवाये। निरन्तर घूमता रहे और जहाँ सूर्यास्त हो वहीं ठहर जाय। प्रारब्धवश जो कुछ मिल जाय, उसी से वन-निर्वाह करे। आशा-तृष्णा का सर्वथा त्याग करके सबके प्रति समान भाव रखे। भोगों से दूर रहे और हृदय में किसी प्रकार का विकार न आने दे। इन्हीं सब धर्मों के कारण इस आश्रम को ‘क्षेमाश्रम‘ (कल्याणप्राप्तिका स्थान) कहते हैं। इस आश्रम में आया हुआ ब्राह्मण अविनाशी ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर लेता है। अब गृहस्थाश्रम के धर्म सुनो-जो वेदों का अध्ययन पूर्ण करके समस्त वेदोक्त शुभ कर्मों का अनुष्ठान करने के पश्चात् अपनी विवाहिता पत्नीके गर्भ से संतान उत्पन्न कर उस आश्रम के न्यायोचित भोगों को भोगता और एकाग्रचित हो मुनिजनोचित धर्म से युक्त दुष्कर गार्हस्थ्य धर्म का पालन करता है, वह उत्तम है। गृहस्थको चाहिये कि वह अपनी ही स्त्री में अनुराग रखते हुए संतुष्ट रहे। ऋतुकाल में ही पत्नी के साथ समागम करे। शास्त्रों की आज्ञा का पालन करता रहे। शठता और कुटिलता से दूर रहे। परिमित आहार ग्रहण करे। देवताओं की आराधना में तत्पर रहे। उपकार करने वालों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करे। सत्य बोले। सबके प्रति मृदुभाव रखे। किसीके प्रति क्रूर न बने और सदा क्षमाभाव रखे। गृहस्थाश्रमी पुरुष इन्द्रियों का संयम करे, गुरुजनों एवं शास्त्रों की आज्ञा माने, देवताओं और पितरों की तृप्तिके लिये हव्य और कव्य समर्पित करने में कभी भूल न होने दे, अन्य सब आश्रमों को भोजन देकर उनका पालन-पोषण करता रहे और सदा यज्ञ-यागादि में लगा रहे। तात! इस विषय में महानुभाव महर्षिगण नारायणगीत का उल्लेख किया करते हैं जो महान् अर्थसे युक्त और अत्यन्त तपस्या द्वारा प्रेरित होकर कहा गया है। मैं उसका वर्णन करता हूँ, तुम सुनो। ‘गृहस्थ पुरुष इस लोक में सत्य, सरलता, अतिथिसत्कार, धर्म, अर्थ, अपनी पत्नी के प्रति अनुराग तथा सुखन सेवन करे। ऐसा होने पर ही उसे परलोक में भी सुख प्राप्त होते हैं, यह मेरा मत है‘।
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