महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 63 श्लोक 1-14
त्रिषष्टिम (63) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
वर्णाश्रमधर्म का वर्णन तथा राजधर्म की श्रेष्ठता
भीष्मजी कहते हैं-राजन्! धनुष की डोरी खींचना, शत्रुओंको उखाड फेकना, खेती, व्यापार और पशुपालन करना अथवा धन के उद्देश्यसे दूसरों की सेवा करना-ये ब्राह्मण के लिये अत्यन्त निषिद्ध कर्म हैं। मनीषी ब्राह्मण यदि गृहस्थ हो तो उसके लिये वेदों का अभ्यास और यजन-याजन आदि छःकर्म ही सेवन करने योग्य हैं। गृहस्थ आश्रमका उद्देश्य पूर्ण कर लेने पर ब्राह्मण के लिये (वानप्रस्थी होकर) वनमें निवास करना उत्तम माना गया है। गृहस्थ ब्राह्मण राजा की दासता, खेती के द्वारा धन का उपार्जन, व्यापार से जीवन-निर्वाह, कुटिलता, व्यभिचारिणी स्त्रियों के साथ व्यभिचारकर्म तथा सूदखोरी छोड दे। राजन्! जो ब्राह्मण दुश्चरित्र, धर्महीन, शूद्रजातीय कुलटा स्त्रीसे सम्बन्ध रखने वाला, चुगलखोर, नाचनेवाला, राजसेवक तथा दूसरे-दूसरे विपरीत कर्म करनेवाला होता है, वह ब्राह्मणत्वसे गिरकर शूद्र हो जाता है। नरेश्वर! उपर्युक्त दुर्गुणों से युक्त ब्राह्मण वेदों का स्वाध्याय करता हो या न करता हो, शुद्रों के ही समान है। उसे दास की भाँति पंक्ति से बाहर भोजन कराना चाहिये। ये राज-सेवक आदि सभी अधम ब्राह्मण शूद्रों के ही तुल्य है। राजन्! देवकार्य में इनका परित्याग कर देना चाहिये। राजन्! जो ब्राह्मण मर्यादाशून्य, अपवत्रि, क्रूर स्वभाववाला, हिंसापरायण तथा अपने धर्म और सदाचार का परित्याग करने वाला है, उसे हव्य-कव्य तथा दूसरे दान देना न देने के ही बराबर है। अतः नरेश्वर! ब्राह्मणके लिये इन्द्रियसंयम, बाहर-भीतर की शुद्धि और सरलता के साथ-साथ धर्माचरण का ही विधान है। राजन् ! सभी आश्रम ब्राह्मणों के लिये ही हैं क्योंकि सबसे पहले ब्राह्मणों की ही सृष्टि हुई हैं। जो मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाला, सोमयाग करके सोमरस पीनेवाला, सदाचारी, दयालु सब कुछ सहन करने वाला, निष्काम, सरल, मृदु, क्रूरतारहित और क्षमाशील हो, वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। उससे भिन्न जो पापाचारी है, उसे ब्राह्मण नहीं समझना चाहिये। राजन्! पाण्डुनन्दन ! धर्मपालन की इच्छा रखनेवाले सभी लोग, सहायता के लिये शूद्र, वैश्य तथा क्षत्रिय की शरण लेते हैं। अतः जो वर्ण शान्तिधर्म (माक्ष-साधन) में असमर्थ माने गये हैं, उनके भगवान विष्णु शान्तिपरकधर्मका उपदेश करना नहीं चाहते। यदि भगवान विष्णु यथायोग्य विधान न करें तो लोक में जो सब लोंगोंको यह सुख आदि उपलब्ध है, वह न रह जाय। चारों वर्ण तथा वेदों के सिद्धान्त टिक न सकें। सम्पूर्ण यज्ञ तथा समस्त लोक की क्रियाएँ बंद हो जायँ तथा आश्रममें रहने वाले सब लोग तत्काल विनष्ठ हो जायँ। पाण्डुनन्दन ! जो राजा अपने राज्यमें तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के द्वारा शास्त्रोंक्त रूपसे आश्रम-धर्म का सेवन कराना चाहता हो, उसके लिये जानने योग्य जो चारों आश्रमोंके लिये उपयोगी धर्म हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। पृथ्वीनाथ! जो शूद्र तीनों वर्णों की सेवा करके कृतार्थ हो गया है, जिसने पुत्र उत्पन्न कर लिया है, शौच और सदाचारकी दृष्टिसे जिसमें अन्य त्रैवर्णिकोंकी अपेक्षा बहुत कम अन्तर रह गया है अथवा जो मनुप्रोक्त दस धर्मोंके पालनमें तत्पर रहा है[१], वह शूद्र यदि राजाकी अनुमति प्राप्त कर ले तो उसके लिये संन्यासको छोड़कर शेष सभी आश्रम विहित हैं। राजेन्द्र ! पूर्वोंक्त धर्मों का आचरण करनेवाला शूद्रके लिये तथा वैश्य और क्षत्रियके लिये भी भिक्षा माँगकर निर्वाह करने का विधान है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ धृति, क्षमा, मनका निग्रह, चोरी का त्याग, बाहर-भीतर की पवित्रता, इन्द्रियों का निग्रह, सात्विक बुद्धि, सात्विक ज्ञान, सत्यभाषण और क्रोध का अभाव - ये दस धर्म के लक्षण है।