महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-20
षट्षष्टितम (66) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
- राजधर्म के पालनसे चारों आश्रमों के धर्मका फल मिलने का कथन
युधिष्ठिर बोले- पितामह ! आपने मानवमात्रके लिये जो चार आश्रम पहले बताये थे, वे सब मैंने सुन लिये। अब विस्तारपूर्वक इनकी व्याख्या कीजिये। मेरे प्रश्नके अनुसार इनका स्पष्टीकरण कीजिये। भीषजी बोले- महाबाहु युधिष्ठिर ! साधु पुरूषों-द्वारा सम्मनित समस्त धर्मोंका जैसा मुझे ज्ञान है, वैसा ही तुमको भी है। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ! तथापि जो तुम विभिन्न लिंगों (हेतुओं) से रूपान्तरको प्राप्त हुए सूक्ष्म धर्मके विषयमें मुझसे पूछ रहे हो, उसके विषयमें कुछ निवेदन कर रहा हूं, सुनो।कुन्तीनन्दन ! नरेश्रेष्ठ ! चारों आश्रमोंके धर्मो का पालन करनेवाले सदाचारपरायण पुरूषोंको जिन फलोंकी प्राप्ति होती है, वे ही सब राग-द्वेष छोड़कर दण्डनीतिके अनुसार बर्ताव करनेवाले राजाको भी प्राप्त होते हैं। युधिष्ठिर ! यदि राजा सब प्राणियोंपर समान दृष्टि रखनेवाला है तो उसे संन्यासियोंको प्राप्त होनेवाली गति प्राप्त होनेवाली गति प्राप्त होती है। जो तत्त्वज्ञान, सर्वत्याग, इन्द्रियसंयम तथा प्राणियोंपर अनुग्रह करना जानता है तथा जिसका पहले कहे अनुसार उत्तम आचार-विचार है, उस धीर पुरूषको कल्याणमय गृहस्थाश्रमसे मिलनेवाले फलकी प्राप्ति होती है। पाण्डुनन्दन ! इसी प्रकार जो पूजनीय पुरूषोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ देकर सदा सम्मनित करता है, उसे ब्रह्मचारियोंको प्राप्त होनेवाली गति मिलती है। युधिष्ठिर ! जो संकटमें पड़े हुए अपने सजातियों, सम्बन्धियों और सुहृदोंका उद्धार करता है, उसे वानप्रस्थआश्रममें मिलनेवाले पदकी प्राप्ति होती है। कुन्तीनन्दन ! जो जगत्के श्रेष्ठ पुरूषों और आश्रमियोंका निरन्तर सत्कार करता है, उसे भी वानप्रस्थ-आश्रम द्वार मिलने वाले फलोंकी प्राप्ति होती है। कुन्तीनन्दन ! जो नित्यप्रति संध्या-वन्दन आदि नित्यकर्म, पितृश्राद्ध, भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ (अतिथि-सेवा)- इन सबका अनुष्ठान प्रचुर मात्रामें करता रहता है, उसे वानप्रस्थाश्रमके सेवनसे मिलनेवाले पुण्यफलकी प्राप्ति होती है। राजेन्द्र! बलिवैश्वदेवके द्वारा प्राणियोंको उनका भाग समर्पित करनेसे, अतिथियोंके पूजनसे तथा देवयज्ञोंके अनुष्ठानसे भी वानप्रस्थ-सेवनका फल प्राप्त होता है। सत्यपराक्रमी पुरूषसिंह युधिष्ठिर ! शिष्टपुरूषोंकी रक्षाके लिये अपने शत्रुके राष्ट्रोंको कुचल डालनेवाले राजाको भी वानप्रस्थ-सेवन का फल प्राप्त होता है। समस्त प्राणियोंके पालन तथा अपने राष्ट्रकी रक्षा करनेसे राजाको नाना प्रकारके यज्ञोंकी दीक्षा लेनेका पुण्य प्राप्त होता है। राजन् इससे वह संन्यासाश्रमके सेवनका फल प्राप्त करता है। जो प्रतिदिन वेदों का स्वध्याय करता है, क्षमाभाव रखता है, आचार्यकी पूजा करता है और गुरूकी सेवामें संलग्न रहता है, उसे ब्रह्माश्रम (संन्यास) द्वारा मिलनेवाला फल प्राप्त होता है। पुरूष सिंह ! जो प्रतिदिन इष्ट-मान्त्रका जप और देवताओंका सदा पूजन करता है, उसे उस धर्मके प्रभावसे धर्माश्रमके पालनका अर्थात् गार्हस्थ्य धर्मके पालनका पुण्यफल प्राप्त होता है। जो राजा युद्धमें प्राणोंकी बाजी लगाकर इस निश्चयके साथ शत्रुओंका सामना करता है कि ‘या तो मैं मर जाऊँगा या देशकी रक्षा करके ही रहूँगा‘ उसे भी ब्रह्माश्रम अर्थात् संन्यास-आश्रमके पालनका ही फल प्राप्त होता है। भनतनन्दन ! जो सदा समस्त प्राणियोंके प्रति माया और कुटिलतासे रहित यथार्थ व्यवहार करता है, उसे भी ब्रह्माश्रम सेवनका ही फल प्राप्त होता है। भारत ! जो वानप्रस्थ, ब्राह्मणों तथा तीनों वेदके विद्वानोंको प्रचुर धन दान करता है, उसे वानप्रस्थ-आश्रमके सेवनका फल मिलता है। भनतनन्दन ! जो समस्त प्राणियोंपर दया करता है और क्रूरतारहित कर्मोंमें ही प्रवृत्त होता है, उसे सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्रा्रप्त होता है। कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ! जो बालकों और बूढोंके प्रति दयापूर्वक बर्ताव करता है, उसे भी सभी आश्रमोंके सेवनका फल प्राप्त होता है।
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