महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 78 श्लोक 16-30
अष्टसप्ततिम (78) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
जिसकी शक्ति क्षीण हो रही हो, उस राजा के लिये ब्राह्यण को ही सबसे बडा़ सहायक बताया गया है; अतः बुद्धिमान नरेश को ब्राह्यण के बल का आश्रय लेकर ही अपनी उन्नति करनी चाहिये। जब भूतलपर विजयी राजा अपने राष्ट्र में कल्याणमय शासन स्थापित करना चाहता हो, तब उसे चाहिये कि जिस किसी प्रकार से सभी वर्ण के लोगों को अपने - अपने धर्म का पालन करने में लगाये रखे। युधिष्ठिर! जब डाकू और लुटेरे धर्म मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचार के प्रवृत्त हुए हों और प्रजा में वर्णसंकरता फैला रहे हों, उस समय इस अत्याचार को रोकने के लिये यदि सभी वर्णों के लोग हथियार उठा लें तो उन्हें कोई दोष नहीं लगता । युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! यदि क्षत्रिय जाति ही सब ओर से ब्राह्यणों के साथ दुव्र्यवहार करने लगे, उस समय उस ब्राह्यणकुल की रक्षा कौन- सा धर्म (कर्तव्य) है तथा कौन -सा महान् आश्रय? भीष्मजी ने कहा-राजन्! उस समय ब्राह्यण अपने तप से, ब्रह्यचर्य से, शस्त्र सेे, शस्त्रसे, बल से, निष्कपट व्यवहार से अथवा भेदनीति से-जैसे भी सम्भव हो, उसी तरह क्षत्रिय जाति को दबाने का प्रयत्न करें। जब क्षत्रिय ही प्रजा के ऊपर, उसमें भी विशेषतः ब्राह्यर्णों पर अत्याचार करने लगे तो उस समय उसे ब्राह्यण ही दबा सकता है; क्योकि क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्राह्यण से ही हुई है। अग्नि जल से, क्षत्रिय से और लोहा पत्थर से पैदा हुआ है। इनका तेज या प्रभाव सर्वत्र काम करता है; परंतु अपनी उत्पत्ति के मूल कारणों से मुकाबला पड़ने पर शान्त हो जाता हैं। जब लोहा पत्थर काटता है, अग्नि जल के पास जाती है और क्षत्रिय ब्राह्यण सेे द्धेष करने लगता है, तब ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। युधिष्ठिर! यघपि क्षत्रियों के तेज और बल प्रचण्ड और अजेय होते है, तथापित ब्राह्मण से टक्कर लेने पर शान्त हो जाते है। जब ब्राह्मण की शक्ति मन्द पड जाय, क्षत्रिय का पराक्रम भी दुर्बल हो जाय और सभी वर्णों के लोग सर्वथा ब्राह्मणों से दुर्भाव रखने लगें, उस समय जो लोग ब्राह्मणों की, धर्म की, तथा अपने आपकी रक्षा के लिये प्राणों की परवा न करके दुष्टों के साथ क्रोधपूर्वक युद्ध करते हैं, उन मनस्वी पुरूषों का पवित्र यश सब ओर फैल जाता है; क्योंकि ब्राह्मणों की रक्षा के लिये सब को शस्त्र ग्रहण करने का अधिकार है। अतिमात्रा में यज्ञ, वेदाध्ययन, तपस्या और उपवास व्रत करने वालों को तथा आत्मशुद्धि के लिये अग्निप्रवेश करने वाले लोगों जिन लोकों की प्राप्ति होती है, उनसे भी उत्तम लोक ब्राह्मण के लिये प्राण देने वाले शूरवीरों को प्राप्त होते हैं। ब्राह्मण भी यदि तीनों वर्णों की रक्षा के लिये शस्त्र ग्रहण करे तो उसे दोष नहीं लगता। विद्वान पुरूष इस प्रकार युद्ध में अपने शरीर के त्याग से बढकर दूसरा कोई धर्म नहीं मानते है। जो लोग ब्राह्मणों से द्वेष करने वाले दुराचारियों को दबाने के लिये युद्ध की ज्वाला में अपने शरीर की आहुति दे डालते है, उन वीरों को नमस्कार है, उनका कल्याण हो। हम लोगों को उन्हीं के समान लोक प्राप्त हो। मनुजी ने कहा है कि वे स्वर्गीय शूरवीर ब्रह्मलोक पर विजय पा जाते है।
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