महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 7 श्लोक 36-44
सप्तम (7) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
धनंजय! किया हुआ पाप कहने से, शुभ कर्म करने से, पछताने से, दान करने से और तपस्या से भी नष्ट होता है। निवृत्तिपरायण होने, तीर्थयात्रा करने तथा’ वेद- शास्त्रों का स्वाध्याय एवं जप करने से भी पाप दूर हाता है। श्रुतिका कथन है कि त्यागी पुरूष पाप नहीं कर सकता तथा वह जन्म और मरण के बन्धन में भी नहीं पड़ता। धंनजय! उसे मोक्ष का मार्ग मिल जाता है और वह ज्ञानी एवं स्थिर बुद्धि मुनि द्वन्द्वरहित होकर तत्काल ब्रहम साक्षात्कार कर लेता है। शत्रुओं को तपाने वाले अर्जुन! मैं तुम सब लोगों से बिदा लेकर बन में चला जाऊॅंगा। शत्रु सूदन! (परमात्मा का दर्शन ) नहीं प्राप्त कर सकता ।’ इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। मैंने परिग्रह (राज्य और धन के संग्रह) की इच्छा रखकर केवल पाप बटोरा है, जो जन्म और मृत्यु का मुख्य कारण है। श्रुतिका कथन है कि ’परिग्रह से पाप ही प्राप्त हो सकता है’। अतः मैं परिग्रह छोड़कर सारे राज्य और इसके सुखों का लात मारकर बन्धनमुक्त हो शोक और ममता से ऊपर उठ कर, कहीं बन में चला जाऊँगा। कुरूनन्दन! तुम इस निष्टकण्टक एवं कुशल-क्षेम से युक्त पृथ्वी का शासन करो। मुझे राज्य और भोगों से कोई मतलब नहीं है। इतना कहकर करूराज युधिष्ठिरचुप हो गये। तब कुन्ती के सबसे छोटे पुत्र अर्जुन ने भाषण देना आरम्भ किया।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानु शासन पर्व में युधिष्ठिरका खेद पूर्ण उद्वार नामक सातवां अध्याय पूरा हुआ।
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