महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 80 श्लोक 13-25
अशीतितम (80) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
‘अमुक व्यक्ति मेरे मरने के बाद राजा हो सकता है और धन की यह सारी आय अपने हाथ में लें सकता है ऐसी मान्यता जिसके विषय में हो (वह भाई, पड़ोसी या पुत्र ही क्यों न हो ) उससे सदा सतर्क ही रहना चाहिये; क्योंकि विद्वान् पुरूष उसे शत्रु ही समझते हैं। वर्षा आदि का जल जिसके खेत से होकर दूसरे के खेत में जाता है, उसकी इच्छा के बिना उसके खेत की आड़ या मेड़ को नहीं तोड़ना चाहिये। इसी प्रकार आड़ न टूटने से जिसके खेत में अघिक जल भर जाता है, वह भयभीत हो उस जल कों निकालने के लिये खेत की आड़ को तोड़ डालना चाहना है। जिसमें ऐसे लक्षण जान पड़े, उसी को शत्रु समझो, अर्थात् जो अपने राज्य की सीमा का रक्षक है वह यदि सीमा तोड़ दे तो अपने राज्य पर भय आ सकता है; अतः उसे भी शत्रु ही समझना चाहिये। जो राजा की उन्नति से कभी तृप्त न हो उत्तरोत्तर उसकी अधिक उन्नति ही चाहता रहे और अवनति होने पर बहुत दुखी हो जाय, यही उत्तम मित्र की पहचान बतायी गयी है। जिसके विषय में ऐसी मान्यता हो कि मेरे न रहने पर यह भी नहीं रहेगा उस पर पिता के समान विश्वास करना चाहिये। और जब अपनी वृद्वि हो तो यथाशक्ति उसे भी सब ओर से समृद्विशाली बनावे जो धर्म के कार्याे में भी राजा को सदा हानि से बचाने से भयभीय हो उठता है, उसके इस स्वभाव को ही उत्तम मित्र का लक्षण समझना चाहिये। जो राजा की हानि और विनाश की इच्छा रखते है, वे उसके शत्रु माने गये है। जो मित्र पर विपत्ति आनेकी सम्भावना से सदा डरता रहता है और उसकी उन्नति देखकर मन-ही-मन ईष्र्या नहीं करता है ,ऐसे मित्र को अपने आत्मा के समान बताया गया है। जिसका रूप रंग सुन्दर और स्वर मीठा हो, जो क्षमशील हो, निदक न हो तथा कुलीन और शीलवान हो, वह तुम्हारा प्रधान सचिव होना चाहिये। जिसकी बुद्धि अच्छी और स्मरण शक्ति तीव्र हो, जो कार्यसाधन में कुशल और स्वभावतः दयालु हो तथा कभी मान या अपमान हो जाने पर जिसके हद्य में द्वेष या दुर्भाव नहीं पैदा होता हो, ऐसा मनुष्य यदि ऋत्विज, आचार्य अथवा अत्यन्त प्रशंसित मित्र हो तो वह मन्त्री बनकर तुम्हारें घर में रहे तथा तुम्हें उसका विशेष आदर सम्मान करना चाहिये। वह तुम्हारें उत्तम से उत्तम गोपनीय मन्त्र तथा धर्म और अर्थ की प्रकृति[१] को भी जानने का अधिकारी हैं। उस पर तुम्हारा वैसा ही विश्वास होना चाहिये, जैसा कि एक पुत्र का पिता पर होता है। एक काम पर एक ही व्यक्ति को नियुक्त करना चाहिये, दो या तीन को नहीं; क्योंकि वे आपस में एक दूसरे को सहन नहीं कर पाते; एक कार्य पर नियुक्त हुए अनेक व्यक्तियों में प्रायः सदा मतभेद हो ही जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रकृतियाँ तीन प्रकार की बतायी गयी है- अर्थप्रकृति, धर्मप्रकृति तथा अर्थ-धर्मप्रकृति। इनमें अर्थ प्रकृति के अन्तर्गत आठ वस्तुएँ है- खेती, वाणिज्य, दुर्ग, सेतु (पुल), जंगल में हाथी बाँधने के स्थान, सोने चाँदी आदि धातुओं की खान, कर-ग्रहण और सूने स्थानों को बसाना। इनके अतिरिक्त जो दुर्गाध्यद्वक्ष, बलाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, सेनापति, पुरोहित, वैद्य और ज्योतिषी- ये सात प्रकृतियाँ हैं, इनमें से धर्माध्यक्ष तो धर्मप्रकृति है और शेष छः अर्थ धर्मप्रकृति के अन्तर्गत है।