महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-11

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एकाशीतितम (81) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर उस कुल के प्रधान पुरूष को क्या करना चाहिये? इसके विषय में श्रीकृष्ण और नारद जी का संवाद युंिधष्ठिर ने पूछा-पितामह ! यदि सजातीय बन्धुओं और सगे-सम्बन्धियों के समुदाय को पारस्परिक स्पर्धां के कारण वश में करना असम्भव हो जाय, कुटुम्बीजनों में ही यदि दो दल हों तो एक का आदर करने से दूसरा दल रूष्ट हो ही जाता हैं। ऐसी परिस्थिति के कारण यदि मित्र भी शत्रु बन जायँ, तब उन सबके चित्त को किस प्रकार वश में किया जा सकता हैं? भीष्म जी ने कहा-युधिष्ठिर ! इस विषय में मनीषी पुरूष देवर्षि नारद और भगवान श्रीकृष्ण के भूतपूर्व संवाद रूप इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- देवर्षे! जो व्यक्ति सुहृद् न हा, जो सुहृद् तो हो किंतु पण्डित न हो तथा जो सुहृद और पण्डित तो हो किंतु अपने मन को वश में न कर सका हो-ये तीनों ही परम गोपनीय मन्त्रणा को सुनने या जानने के अधिकारी नहीं हैं। स्वर्ग में विचरने वाले नारद जी ! मैं आपके सौहार्द पर भरोसा रखकर आपसे कुछ निवेदन करूँगा। मनुष्य किसी व्यक्ति में बुद्धि-बल की पूर्णता देखकर ही उससे कुछ पूछता या जिज्ञासा प्रकट करता हैं। मैं अपनी प्रभुता प्रकाशित करके जाति-भाईयों, कुटुम्बीजनों को अपना दास बनाना नहीं चाहता। मुझे जो भोग प्राप्त होते हैं, उनका आधा भाग ही अपने उपभोग में लाता हूँ, शेष आधा भाग कुटुम्बीजनों के लिये ही छोड़ देता हूँ। और उनकी कड़वी बातों को सुनकर भी क्षमा कर देता हूँ। देवर्षं ! जैसे अग्नि को प्रकट करने की इच्छा वाला पुरूष अरणीकाष्ठ का मन्थन करता हैं, उसी प्रकार इन कुटुम्बीजनों का कटुवचन मेरे हृदय को सदा मथता और जलाता रहता हैं। नारदजी! बड़े भाई बलराम में सदा ही असीम बल हैं; वे उसी में मस्त रहते हैं। छोटे भाई गद में अत्यन्त सुकुमारता हैं (अतः वह परिश्रम से दूर भागता है); रह गया बेटा प्रद्युम्न, सो वह अपने रूप-सौन्दर्य के अभिमान से ही मतवाला बना रहता है। इस प्रकार इन सहायकों के होते हुए भी मैं असहाय ूँ। ्यायः नारद जी ! अन्धक तथा वृष्णिवंश में और भी बहुत-से वीर पुरूष हैं, जो महान् सौभाग्यशाली, बलवान् एवं दुःसह पराक्रमी हैं, वे सब-के-सब सदा उद्योगशील बने रहतंे हैं। ये वीर जिसके पक्ष में न हों, उसका जीवित रहना असम्भव हैं और जिसके पक्ष में ये चले जायँ, वह सारा-का-सारा समुदाय ही विजयी हो जाय। परंतु आहुक और अक्रूर ने आपस में वैमनस्य रखकर मुझे इस तरह अवरूद्ध कर दिया है कि मैं इनमें से किसी एक का पक्ष नहीं ले सकता। आपस में लड़ने वाले आहुक और अक्रूर दोनों ही जिसके स्वजन हों, उसके लिये इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या होगी? और वे दोनों ही जिसके सुहृद् न हों, उसके लिये भी इससे बढ़कर और दुःख क्या हो सकता हैं? (क्योंकि ऐसे मित्रों का न रहना भी महान् दुःखदायी होता है)। महामते! जैसे दो जुआरियों की एक ही माता एक की जीत चाहती हैं तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहती, उस प्रकार मैं भी इन दोनों सुहृदों में से एक की विजयकामना करता हूँ तो दूसरे की भी पराजय नहीं चाहता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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