महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 82 श्लोक 57-70
द्वयशीतितम (82) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
यद्यपि मैं इन लोगों से द्रोह नहीं करता तो भी मेरे प्रति इन लोगों की दोष-दृष्टि हो गयी हैं। जिसकी पूँछ दबा दी गयी हो, उस सर्पं के समान दुष्ट हृदयवाले शत्रु से सदा डरते रहना चाहिये (इसलिये अब मैं यहाँ रहना नहीं चाहता)। राजा ने कहा-विप्रवर ! आप पर आने वाले भय अथवा संकट का विशेष रूप से निवारण करते हुए मैं आपको बड़े आदर-सत्कार के साथ अपने यहाँ रखूँगा। आप मेरे द्वारा सम्मानित हो बहुत काल तक मेरे महल में निवास कीजिये। ब्रह्मन्! जो आपको मेरे यहाँ नहीं रहने देना चाहते हैं, वे स्वयं ही मेरे घर में नहीं रहने पायेंगे अब इन विरोधियों का दमन करने के लिये जो आवश्यक कत्र्तव्य हो, उसे आप स्वयं ही सोचिये और समझिये। भगवन् ! जिस तरह राजदण्ड को मैं अच्छी तरह धारण कर सकूँ और मेरे द्वारा अच्छे ही कार्य होतंे रहें, वह सब सोचकर आप मुझे कल्याण के मार्गं पर लगाइये मुनि ने कहा-राजन् ! पहले तो कौए को मारने का जो अपराध है, इसे प्रकट किये बिना ही एक-एक उसके बाद अपराध के कारण का पूरा-पूरा पता लगाकर क्रमशः एक-एक व्यक्ति का वध कर डालिये। नरेश्वर ! जब बहुत-से लोगों पर एक ही तरह का दोष लगाया जाता है तो वे सब मिलकर एक हो जाते हैं और उस दशा में वे बड़े-बड़े कण्टकों को भी मसल डालते हैं, अतः यह गुप्त विचार दूसरों पर प्रकट न हो जाय, इसी भय से मैं तुम्हें इस प्रकार एक-एक करके विरोधियों के वध की सलाह दे रहा हूँ। महाराज ! हम लोग ब्राह्मण हैं। हमारा दण्ड भी बहुत कोमल होता हैं। हम स्वभाव से ही दयालु होते हैं; अतः अपने ही समान आपका और दूसरों का भी भला चाहते हैं। राजन्! अब मैं आपको अपना परिचय देता हूँ। मैं आपका सम्बन्धी हूँ। मेरा नाम हैं कालकवृक्षीय मुनि। मैं आपके पिता का आदरणीय एवं सम्यप्रतिज्ञ मित्र हूँ। नरेश्वर ! आपके पिता के स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् जब आपके राज्य पर भारी संकट आ गया था, तब अपनी समस्त कामनाओं का परित्याग करके मैंने (आपके हित के लिये) तपस्या की थी। आपके प्रति स्नेंह होने के कारण मैं फिर यहाँ आया हूँ और आपको ये सब बातें इसलिये बता रहा हूँ कि आप फिर किसी के चक्कर में न पड़ जायँ। महाराज ! आपने सुख और दुःख दोनों देखे हैं। यह राज्य आपको दैवेच्छा से प्राप्त हुआ हैं तो भी आप इसे केवल मन्त्रियों पर छोड़कर क्यों भूल कर रहे हैं? तदनन्तर पुरोहित के कुल में उत्पन्न विप्रवर कालकवृक्षीय मुनि के पुनः आ जाने से राजपरिवार में मंगल पाठ एवं आनन्दोत्सव होने लगा। कालकवृक्षीय मुनि ने अपने बुद्धिबल से यशस्वी कोसलनरेश को भूमण्ड़ल का एकच्छत्र सम्राट् बनाकर अनेक उत्तम यज्ञों द्वारा यजन किया। भारत! कोसलराज ने भी पुरोहित का हितकारी वचन सुना और उन्हांेने जैसा कहा, वैसा ही किया। इससे उन्होंने समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त कर ली।
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