महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-18

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एकनवतितम (91) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व और राजा के धर्म का वर्णन

उतथ्य कहते हैं - राजन्! राजा धर्मका आचरण करे और मेघ समय पर वर्षा करता रहे। इस प्रकार जो सम्पत्ति बढती है, वह प्रजावर्ग सुखपूर्वक भरण- पोषण करती है। यदि धोबी कपडा़े की मैल उतारना नहीं जानता अथवा रँगे हुए वस्त्रों को धोकर शुद्ध एवं उज्जवल बनाने की कला उसे नहीं ज्ञात है तो उसका होना न होना बराबर है। इसी प्रकार श्रेष्ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा चैथे शूद्र वर्ण के मनुष्य यदि अपने - अपने पृथक्-पृथक् कर्मों कोे जानकर उनमें संलग्न नहीं रहते हैं, तो उनका होना न होना एक-सा ही है। शूद्र में द्धिजों की सेवा, वैश्य में कृषि, राजा या क्षत्रिय दण्डनीति तथा ब्राह्मणों में ब्रह्मचर्य, तपस्या, वेदमन्त्र और सत्य की प्रधानता है। इनमें जो क्षत्रिय वस्त्रों की मैल दूर करनेवाले धोबी के समान चरित्र दोष को दूर करना जानता है, वही प्रजावर्गका पिता और वही प्रजाका अधिपति है। भरतश्रेष्ठ ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-ये सब-के-सब राजाके आचरणोंमें स्थित हैं। राजा ही युगांेका प्रवर्तक होनेके कारण युग कहलाता है। जब राजा प्रमाद करता है, तब चारों वर्ण, चारों वेद और चारों आश्रम सभी मोहमें पड़ जाते हैं। जब राजा प्रमादी हो जाता है, तब गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि-ये तीन अग्नि; ऋक्, साम और युज-ये तीन वेद एवं दक्षिणाओंके साथ सम्पूर्ण यज्ञ भी विकृत हो जाते हैं। राजा ही प्राणियोंका कर्ता (जीवनदाता) और राजा ही उनका विनाश करनेवाला है। जो धर्मात्मा है, वह प्रजाका जीवनदाता है और जो परमात्मा है, वह उसका विनाश करनेवाला है। जब राजा प्रमाद करने लगता है, तब उसकी स्त्री, पुत्र, बान्धव तथा सुहृद् सब मिलकर शोक करते हैं। राजा के पापपरायण हो जानेपर उसके हाथी, घोडे़, गौ, ऊँट, खच्चर और गदहे आदि सभी पशु दुःख पाते हैं। मान्धता! कहते हैं कि विधाता ने दुर्बल प्राणियों की रक्षा के लिये ही बलसम्पन्न राजा की सृष्टि की है। निर्बल प्राणियों का महान् समुदाय राजा के बल पर टिका हुआ है। भूपाल! राजा जिन प्राणियों को अन्न आदि देकर उनकी सेवा करता है और जो प्राणी राजा से सम्बन्ध रखते हैं, वे सब-के-सब उस राजा के अधर्मपरायण होने पर शोक प्रकट करने लगते हैं। दुर्बल मनुष्य, मुनि और विषधर सर्प-इन सबकी दृष्टि को मैं अत्यन्त दुःसह मानता हूँ; इसलिये तुम किसी दुर्बल प्राणी को न सताना। तात! तुम दुर्बल प्राणियोंको सदा ही अपमानका पात्र न समझना, दुर्बलोंकी आँखें तुम्हें बन्धु-बान्धवों-सहित जलाकर भस्म न कर डालें, इसके लिये सदा सावधान रहना। दुर्बल मनुष्य जिसको अपनी क्रोधाग्निसे जला डालते हैं, उसके कुलमें फिर कोई अुकुर नहीं जमता। वे जड़मूलसहित दग्ध कर देते हैं; अतः तुम दुर्बलोंको कभी न सताना। निर्बल प्राणी बलवान् से श्रेष्ठ है, क्योंकि जो अत्यन्त बलवान् है, उसके बलसे भी निर्बल का बल अधिक है। निर्बल के द्वारा दग्ध किये गये बलवान् का कुछ भी शेष नहीं रह जाता। यदि अपमानित, हताहत तथा गाली-गलौज से तिरस्कृत होने वाला दुर्बल मनुष्य राजा को अपने रक्षक के रूपमें नहीं उपलब्ध कर पाता तो वहाँ दैव का दिया हुआ दण्ड राजा को मार डालता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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