महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-15

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त्रिनवतितम (93) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वामदेवजी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन

वामदेवजी कहते हैं- राजन् ! जिस राज्यमें अन्यन्त बलवान् राजा दुर्बल प्रजा पर अधर्म या अत्याचार करने लगता है, वहाँ उसके अनुचर भी उसी बर्ताव को अपनी जीविका का साधन बना लेते हैं। वे उस पाप प्रवर्तक राजा का ही अनुसरण करते हैं; अतः उदण्ड मनुष्यों से भरा हुआ वह राष्ट्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। अच्छी अवस्था में रहने पर मनुष्य के जिस बर्ताव का दूसरे लोग भी आश्रय लेते हैं, उस संकट में पड़ जाने पर उसी मनुष्य के उसी बर्ताव को उसके स्वजन भी नहीं सहन करते हैं। दुःसाहसी प्रकृति वाला जो राजा जहाँ कुछ उद्दण्डतापुर्ण बर्ताव करता है, वहाँ शास्त्रोक्त मर्यादा का उल्लंघन करने वाला वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जो क्षत्रिय राज्य में रहने वाले विजित या अविजित मनुष्यों की अत्यन्त आचरणमें लायी हुई वृत्ति का अनुवर्तन नहीं करता (अर्थात् उन लोगोंको अपने परम्परागत आचार-विचार का पालन नहीं करने देता) वह क्षत्रिय-धर्म से गिर जाता है। यदि कोई राजा पहले का उपकारी हो और किसी कारणवश वर्तमानकाल में द्वेष करने लगा हो तो उस समय जो भूपाल उसे युद्धमें बंदी बनाकर द्वेषवश उसका सम्मान नहीं करता, वह भी क्षत्रियधर्म से गिर जाता है। राजा यदि समर्थ हो तो उत्तम सुखका अनुभव करे और करावे तथा आपत्तिमें पड़ जाय तो उसके निवारण का प्रयत्न करे। ऐसा करनेसे वह सब प्राणियों का प्रिय होता है और राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट नहीं होता। राजाको चाहिये यदि किसी का अप्रिय किया हो तो फिर उसका प्रिय भी करे। इस प्रकार यदि अप्रिय पुरूष भी प्रिय करने लगता है तो थोड़े ही समय में वह प्रिय हो जाता है। मिथ्या भाषण करना छोड़ दे, बिना याचना या प्रार्थना किये ही दूसरों का प्रिय करे। किसी कामना से, क्रोध से तथा द्वेष से भी धर्मका त्याग न करे। विद्वान् राजा छल-कपट छोड़कर ही बर्ताव करे। सत्य को कभी न छोड़े। इन्द्रिय-संयम, धर्माचरण, सुशीलता, क्षत्रियधर्म तथा प्रजाके हित का कभी परित्याग न करे। यदि कोई कुछ पूछे तो उसका उत्तर देने में संकोच न करे, बिना विचारे कोई बात मुँहसे न निकाले, किसी काममें जल्दबाजी न करे और किसीकी निन्दा न करे, ऐसा बर्ताव करनेसे शत्रु भी अपने वशमें हो जाता है। यदि अपना प्रिय हो जाय तो बहुत प्रसन्न न हो और अप्रिय हो जाय तो अत्यन्त चिन्ता न करे। यदि आर्थिक संकट आ पड़े तो प्रजाके हितका चिन्तन करते हुए तनिक भी संतप्त न हो। जो भूपाल अपने गुणों से सदा सबका प्रिय करता है, उसके सभी कर्म सफल होते हैं और सम्पत्ति कभी उसका साथ नहीं छोड़ती। श्राजा सदा सावधान रहकर अपने उस सेवक को हर तरह से अपनावे, जो प्रतिकूल कार्यों से अलग रहता हो और राजा का निरन्तर प्रिय करने में ही संलग्न हो। जो बड़े-बड़े काम हों, उनपर जितेन्द्रिय, अत्यन्त अनुगत, पवित्र आचार-विचार वाले, शक्तिशाली और अनुरक्त पुरूष को नियुक्त करे। इसी प्रकार जिसमें वे सब गुण मौजूद हों, जो राजा को प्रसन्न भी रख सकता हो तथा स्वामी का कार्य सिद्ध करने के लिये सतत सावधान रहता हो, उसको धन की व्यवस्था के कार्य में लगावे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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