महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 96 श्लोक 14-24
षण्णवतितम (96) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
राजन् ! जब विजयी राजा पर कोई विपत्ति आ जाती है, तब वे राजा पर संकट पड़ने की इच्छा रखने वाले लोग विपक्षीयों द्वारा सब प्रकार से संतुष्ट हो राजा के शत्रुओं का पक्ष ग्रहण कर लेते हैं। शत्रुके साथ छल नहीं करना चाहिये। उसे किसी प्रकार भी अत्यन्त उच्छिन्न करना उचित नहीं है। अत्यन्त क्षत-विक्षत कर देनेपर वह कभी अपने जीवनका त्याग भी कर सकता है। राजा थोड़े-से लाभसे भी संयुक्त होनेपर संतुष्ट हो जाता है। वैसा नरेश निर्देष जीवन को ही बहुत अधिक महत्त्व देता है। जिस राजाका देश समृद्धिशाली, धन-धान्यसे सम्पन्न तथा राजभक्त होता है और जिसके सेवक एवं मन्त्री संतुष्ट रहते हैं, उसीकी जड़ मजबूत मानी जाती है। जो राजा ऋत्विज्, पुरोहित, आचार्य तथा अन्यान्य पूजाके पात्र शास्त्रज्ञों का सत्कार करता है, वही लोकगतिको जाननेवाला कहा जाता है। इसी बर्तावसे देवराज इन्द्रने राज्य पाया था और इसी बर्तावके द्वारा भूपालगण स्वर्गलोकपर विजय पाना चाहते हैं। राजन्! पूर्वकाल में राजा प्रतर्दन महासमरमें विजय प्राप्त करके पराजित राजा की भूमि को छोड़कर शेष सारा धन, अन्न एवं औषध अपनी राजधानीमें ले आये। राजा दिवोदास अग्निहोत्र, यज्ञका अंगभूत हविष्य तथा भोजन भी हर लाये थे। इसीसे वे तिरस्कृत हुए। भरतनन्दन ! राजा नाभाग ने श्रेत्रिय और तापस के धन को छोड़कर शेष सारा राष्ट्र दक्षिणारूपमें ब्राह्मणों को दे दिया। युधिष्ठिर ! प्राचीन धर्मज्ञ राजाओंके पास जो नाना प्रकारके धन थे, वे सब मुझे भी अच्छे लगते हैं। जिस राजा को अपना वैभव बढ़ानेकी इच्छा हो, वह सम्पूर्ण विद्याओं के उत्कर्ष द्वारा विजय पाने की इच्छा करे; दम्भ या पाखण्ड द्वारा नहीं।
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