महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 98 श्लोक 29-44

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अष्टनवतितम (98) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टनवतितम अध्याय: श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद

जिसके युद्ध - यज्ञ की वेदी नीले चमडे़ की बनी हुई म्यान के भीतर रखी जाने वाली तलवारों तथा परिघ के समान मोटी -मोटी भुजाओं से बिछ जाती है, उसे वैसे ही लोके प्राप्त होते हैं, जैसे मुझे मिले हैं। जो विजय के लिये युद्ध में डटा रहकर शत्रु की सेना में घुस जाता है और दुसरे किसी भी सहायक की अपेक्षा नहीं रखता, उसे मेरे समान ही लोक प्राप्त होते हैं। जिस योद्धा के युद्ध रूपी यज्ञ में रक्त की नदी प्रवाहित होती है, उसके लिये वह नदी की जलराशि हैं नगाडे़ ही मेढक और कछुओं के समान हैं, उसमें प्रवेश पाना अत्यन्त कठिन है, मांस और रक्त ही उस नदी की कीच हैं, ढाल और तलवार ही उसमें नौका के समान हैं, वह भयानक नदी केशरूपी सेवार और घास से ढकी हुई है। कटे हुए घोड़े, हाथी और रथ ही उसमें उतरने के लिये सीढ़ी हैं, ध्वजा -पताका तटवर्ती बेंत की लता के समान हैं, मारे गये हाथियों को भी वह अत्यन्त दुस्तर है, मरे हुए हाथी बड़े-बड़े मगरमच्छ के समान हैं, वह परलोकी ओर प्रवाहित होने वाली नदी अमंगलमयी प्रतीत होती है, ऋष्टि और खड्ग-ये उससे पार होने के लिये विशाल नौका के समान हैं। गीध-कंक और काक छोटी- छोटी नौकाओं के समान हैं। उसके आस -पास राक्षस विचरते हैं तथा वह भीरू पुरूषों को मोह में डालने वाली है। जिसके युद्ध-यज्ञकी वेदी शत्रुओं के मस्तकों, घोडों की गर्दनों और हाथियों के कंधो से बिछ जाती है, उस वीर को मेरे-जैसे ही लोक प्राप्त होते हैं। जो वीर शत्रुसेना के मुहाने का पत्नीशाला बना लेता है, मनीषी पुरूष उसके लिये अपनी सेना के प्रमुख भाग को युद्ध-यज्ञ के हवनीय पदार्थी के रखने का पात्र बताते हैं। जिस वीर के लिये दक्षिणदिशा में स्थित योद्धा सदस्य हैं, उत्तरदिशावर्ती योद्धा आग्नीध्र (ऋत्विक्) हैं एवं शत्रुसेना पत्नीस्वरूप है, उसके लिये समस्त पुण्यलोक दुर नहीं हैं। जब अपनी सेना तथा शत्रु सेना एक-दुसरे के सामने व्यूह बनाकर उपस्थित होती है, उस समय दोनों में से जिसके सम्मुख केवल जनशून्य आकाश रह जाता है, वह निर्जन आकाश ही उस वीर के लिये युद्ध-यज्ञ की वेदी है। उस स्थान पर मानो सदा यज्ञ होता है तथा तीनों वेद और त्रिविध अग्नि सदा ही प्रतिष्ठित रहते हैं। जो योद्धा भयभीत हो पीठ दिखाकर भागता है और उसी अवस्था में शत्रुओं द्वारा मारा जाता है, वह कहीं भी न ठहर कर सीधा नरक में गिरता है, इसमें संशय नहीं है। जिसके रक्त के वेग से केश, मांस और हड्डियों से भरी हुई रण यज्ञ की वेदी आप्लावित हो उठती है, वह वीर योद्धा परम गति को प्राप्त होता है। जो योद्धा शत्रु के सेना पति का वध करके उसके रथ पर आरूढ़ हो जाता है, वह भगवान विष्णु के समान पराक्रमशाली, बृहस्पति के समान बुद्धिमान तथा शक्तिशाली वीर समझा जाता है। जो शत्रु पक्ष के सेनापति, उसके पुत्र अथवा उस पक्ष के किसी भी सम्मानित वीरो को जीते-जी पकड़ लेता है, उसको मेरे-जैसे लोक प्राप्त होते हैं। युद्ध स्थल में मारे गये शूर वीर के लिये किसी प्रकार भी शोक नहीं करना चाहिये। वह मारा गया शूरवीर स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है, अतः कदापि शोचनीय नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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