महाभारत सभा पर्व अध्याय 14 श्लोक 16-35
चतुर्दश (14) अध्याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)
जो भारत भूमि के पश्चिम से लेकर दक्षिण तक के भाग पर शासन करते हैं, आप के मामा वे शत्रु संहारक शूरवीर कुन्ति भोज कुलवर्द्धक पुरूजित् अकेले ही स्नेहवश आपके प्रति प्रेम और आदर का भाव रखते हैं। जिसे मैंने पहले मारा नहीं, उपेक्षावश छोड़ रक्खा है, जिस की बुद्धि बड़ी खोटी है, जो चेदि देश में पुरूषोत्तम समझा जाता है, इस जगत् में जो अपने-आप को पुरूषोत्तम ही कहकर बताया करता है और मोहवश सदा मेरे शंख-चक्र आदि चिन्हों को धारण करता है; वंग, पुण्ड्र तथा किरात देश का जो राजा है तथा लोक में वासुदेव के नाम से जिस की प्रसिद्धि हो रही है, वह बलवान् राजा पौण्ड्रक भी जरासंध से ही मिला हुआ है। राजन् ! जो पृथ्वी के एक चौथाई भाग के स्वामी हैं, इन्द्र के सखा हैं, बलवान् हैं, जिन्होंने अस्त्र-विद्या के बल से पाण्डय, क्रथ और कैशिक देशों पर विजय पायी है, जिन का भाई आकृति जमदग्निनन्दन परशुराम के समान शौर्य सम्पन्न है, वे भोजवंशी शत्रुहन्ता राजा भीष्मक (मेरे श्वशुर होते हुए) भी मगध राज जरासंध के भक्त हैं। हम सदा उन का प्रिय करते रहते हैं, उनके प्रति नम्रता दिखाते हैं और उनके सगे-सम्बन्धी हैं; तो भी वे हम-जैसे अपने भक्तों तो नहीं अपनाते हैं और हमारे शत्रुओं से मिलते-जुलते हैं। राजन् ! वे अपने बल और कुल की ओर भी ध्यान नहीं देते, केवल जरासंध के उज्ज्वल यश की ओर देखकर उस के आश्रित बन गये हैं।
प्रभो ! इसी प्रकार उत्तर दिशा में निवास करने वाले भोजवंशियों के अठारह कुल जरासंध के ही भय से भागकर पश्चिम दिशा में रहने लगे हैं। शूर सेन, भद्रकार, बोध, शाल्व, पटच्चर, सुस्थल, सुकुट्ट, कुलिन्द, कुन्ति तथा शाल्वायन आदि राजा भी अपने भाइयों तथा सेवकों के साथ दक्षिण दिशा में भाग गये हैं । जो लोग दक्षिण पन्चाल एवं पूर्वी कुन्ति प्रदेश में रहते थे, वे सभी क्षत्रिय तथा कोशल, मत्स्य, संन्यस्त पाद आदि राजपूत भी जरासंध भय से पीड़ित हो उत्तर दिशा को छोड़कर दक्षिण दिशा का ही आश्रय ले चुके हैं। उसी प्रकार समस्त पन्चाल देशीय क्षत्रिय जरासंध के भय से दुखी हो अपना राज्य छोड़कर चारों दिशाओं में भाग गये हैं। कुछ समय पहले की बात है, व्यर्थ बुद्धि वाले कंस ने समस्त यादवों को कुचलकर जरासंध की दो पुत्रियों के साथ विवाह किया। उन के नाम थे अस्ति और प्राप्ति । वे दोनों अबलाएँ सहदेव की छोटी बहिनें थीं । निःसार बुद्धिवाला कंस जरासंध के ही बल से अपने जाति-भाइयों को अपमानित करके सब का प्रधान बन बैठा था । यह उसका बहुत बड़ा अत्याचार था। उस दुरात्मा से पीड़ित हो भोजराज वंश के बड़े-बूढ़े लोगों ने जाति-भाईयों की रक्षा के लिये हम से प्रार्थना की। तब मैंने आहुक की पुत्री सुतनु का विवाह अक्रुर से करा दिया और बलराम जी को साथी बनाकर जाति-भाइयों का कार्य सिद्ध किया । मैंने और बलराम जी ने कंस और सुनामा को मार ड़ाला। इस से कंस का भय तो जाता रहा; परंतु जरासंध कुपित हो हम से बदला लेने को उद्यत हो गया । राजन् ! उस समय भोजवंश के अठारह कुलों (मन्त्री - पुरोहित आदि) ने मिल-कर इस प्रकार विचार-विमर्श किया-।
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