महाभारत सभा पर्व अध्याय 22 भाग-2
द्वाविंश (22) अध्याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)
नरेश्वर ! कौन ऐसा स्वाभिवानी क्षत्रिय होगा जो अपने अभिजन को (जातीय बन्धुओं की रक्षा परम धर्म है, इस बात को) जानते हुए भी युद्ध करके अनुपम एवं अक्षय स्वर्ग लोक में जाना नहीं चाहेगा ? नरश्रेष्ठ ! स्वर्ग प्राप्ति का ही उद्देश्य रखकर रणयज्ञ की दीक्षा लेने वाले क्षत्रिय अपने अभीष्ट लोकों पर विजय पाते हैं, यह बात तुम्हें भलीभाँति जाननी चाहिये। वेदाध्ययन स्वर्ग प्राप्ति का कारण है, परोपकार रूप महान् यश भी स्वर्ग का हेतु है, तपस्या को भी स्वर्ग लोक इन तीनों की अपेक्षा युद्ध में मृत्यु का वरण करना ही स्वर्ग प्राप्ति का अमोघ साधन है। क्षत्रिय का यह युद्ध में मरण इन्द्र का वैजयन्त नामक प्रासाद (राजमहल) है । यह सदा सभी गुणों से परिपूर्ण है । इसी युद्ध के द्वारा शतक्रतु इन्द्र असुरों को परास्त करके सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हैं। हमारे साथ जो तुम्हारा युद्ध होने वाला है, वह तुम्हारे लिये जैसा स्वर्गलोक की प्राप्ति का साधक हो सकता है, वैसा युद्ध और किस को सुलभ है ? मेरे पास बहुत बड़ी सेना एवं शक्ति है, इस घमंड में आकर मगधदेश की अगणित सेनाओं द्वारा तुम दूसरों का अपमान न करो । राजन् ! प्रत्येक मनुष्य में बल एवं पराक्रम होता है । महाराज ! किसी में तुम्हारे समान तेज है तो किसी में तुम से अधिक भी है। भूपाल ! जब तक इस बात को नहीं जानते थे, तभी तक तुम्हारा घमंड बढ़ रहा था । अब तुम्हारा यह अभिमान हम लोगों के लिये असह्य हो उठा है, इसलिये मैं तुम्हें यह सलाह देता हूँ। मगधराज ! तुम अपने समान वीरों के साथ अभिमान और घमंड करना छोड़ दो । इस घमंड को रखकर अपने पुत्र, मन्त्री और सेना के साथ यमलोक में जाने की तैयारी न करो। दम्भोद्भव, कार्तवीर्य अर्जुन, उत्तर तथा बृहद्रथ - ये सभी नरेश अपने से बड़ो का अपमान करके अपनी सेनासहित नष्ट हो गये। तुम से युद्ध की इच्छा रखने वाले हम लोग अवश्य ही ब्राह्मण नहीं हैं । मैं वसुदेव पुत्र हृषीकेश हूँ और ये दोनों पाण्डु पुत्र वीरवर भीमसेन और अजुर्न हैं । मैं इन दोनों के मामा का पुत्र और तुम्हारा प्रसिद्ध शत्रु श्रीकृष्ण हूँ । मुझे अच्छी तरह पहचान लो। मगधनरेश ! हम तुम्हें युद्ध के लिये ललकारते हैं । तुम डटकर युद्ध करो । तुम या तो समस्त राजाओं को छोड़ दो अथवा यमलोक की राह लो।
जरासंध ने कहा -श्रीकृष्ण ! मैं युद्ध में जीते बिना किन्हीं राजाओं को कैद करके यहाँ नहीं लाता हूँ । यहाँ कौन ऐसा शत्रु राजा है, जो दूसरों से अजेय होने पर भी मेरे द्वारा जीत न लिया गया हो ? श्रीकृष्ण ! क्षत्रिय के लिये तो यह धर्मानुकूल जीविका बतायी गयी है कि वह पराक्रम करके शत्रु को अपने वश में लाकर फिर उसके साथ मनमाना बर्ताव करे। श्रीकृष्ण ! मैं क्षत्रिय के व्रत को सदा याद रखता हुआ देवता को बलि देने के लिये उपहार के रूप में लाये हुए इन राजाओं को आज तुम्हारे भय से कैसे छोड़ सकता हूँ ?
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