महाभारत सभा पर्व अध्याय 24 श्लोक 42-50
चतुर्विंश (24) अध्याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)
सहदेव बोला- पुरुषसिंह जनार्दन! महाबाहु पुरुषोततम! मेरे पिता ने जो अपराध किया है, उसे आप अपने ह्रदय से निकाल दें। गोविन्द! मैं आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मुझ पर कृपा कीजिये। देवकीनन्दन! मैं अपने पिता का दाहसंस्कार करना चाहता हूँ ।। आपसे, भीमसेन से तथा अर्जुन से आज्ञा लेकर वह कार्य करूँगा और आपकी कृपा से निर्भय हो इच्छानुसार सुख पूर्वक विचरूँगा ।। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण तथा महारथी भीमसेन और अर्जुन बड़े प्रसन्न हुए ।। उन सबने एक स्वर से कहा- ‘राजन्! तुम अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करो।’ भगवान् श्रीकृष्ण तथा दोनों कुन्तीकुमारों का यह आदेश सुनकर मगधराज कुमार ने मंत्रियों के साथ शीघ्र ही नगर में प्रवेश किया। फिर चन्दन की लकड़ी तथा केशर, देवदारु और काला अगुरु आदि सुगन्धित काष्ठों से चिता बनाकर उस पर मगधराज का शव रखा गया। तत्पश्चात जलती चिता में दग्ध होते हुए मगधराज के शरीर पर नाना प्रकार के चन्दनादि सुगन्धित तैल और घी की धाराएँ गिरायी गयीं। सब ओर से अक्षत और फूलों की वर्षा की गयी। शवदाह के पश्चात सहदेव ने अपने छोटे भाई के साथ पिता के लिये जलाजंलि दी। इस प्रकार पिता का पारलौकिक कार्य करके राजकुमार सहदेव नगर से निकलकर उस स्थान में गया, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण तथा महाभाग पाण्डुपुत्र भीमसेन और अर्जुन विद्यमान थे। उसने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण से कहा।
सहदेव ने कहा- प्रभो! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं। गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सवा के लिये आदेश दीजिये।। वह भय से पीड़ित हो रहा था, पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अभयदान देकर उसके लाये हुए बहुमूल्य रत्नों की भेंट स्वीकार कर ली। तत्पश्चात जरासंध कुमार को प्रसन्नतापूर्वक वहीं पिता के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। श्रीकृष्ण ने सहदेव को अपना अभिन्न सुह्रद् बना लिया, इसलिये भीमसेन और अर्जुन ने भी उसका बड़ा सत्कार किया। राजन्! उन महात्माओं द्वारा अभिषिक्त हो महाबाहु जरासंधपुत्र तेजस्वी राजा सहदेव अपने पिता के नगर में लौट गया। और पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने सर्वाेत्तम शोभा से सम्पन्न हो प्रचुर रत्नां की भेंट ले दोनों कुन्तीकुमारों के साथ वहाँ से प्रस्थान किया। भीमसेन और अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ में आकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर से मिले और अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले-। ‘नृपश्रेष्ठ! सौभाग्य की बात है कि महाबली भीमसेन ने जरासंध को मार गिराया और समस्त राजाओं को उसकी कैद से छुड़ा दिया। ‘भारत! भाग्य से ही ये दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन अपने नगर में पुन: सकुशल लौट आये और इन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची’। तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण का यथायोग्य सत्कार करके भीमसेन और अर्जुन को भी प्रसन्नतापूर्वक गले लगाया। तदनन्तर जरासंध के नष्ट होने पर अपने दोनों भाईयों द्वारा की हुर्ह विजय को पाकर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर भाईयों सहित आनन्दमग्र हो गये।
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