महाभारत सभा पर्व अध्याय 28 भाग 3

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अष्टाविंश (28) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टाविंश अध्याय: भाग 3 का हिन्दी अनुवाद

राजन! उस वर्ष को जीतकर अर्जुन ने उसे कर देने वाला बना दिया और वहाँ से दुर्लभ रत्न लेकर वे पुन: मध्यवर्ती इलावृतवर्ष में लौट आये। तदनन्तन शत्रुदमन सव्यसाची अर्जुन ने पूर्व दिशा में प्रस्थान किया। मेरु और मन्दराचल के बीच शैलोदा नदी के दोनों तटों पर जो लोग कीचक और वेणु नामक बाँसों की रमणीय छाया का आश्रय लेकर रहते हैं, उन खश, झष, नद्योत, प्रघस, दीर्घवेणिक, पशुष, कुलिन्द, तंगण तथा परतंगण आदि जातियों को हराकर उन सबसे रत्नों की भेंट ले अर्जुन माल्यवान् पर्वत पर गये। तत्पश्चात गिरिराज माल्यवान् को भी लाँखकर उन पाण्डुकुमार ने भद्राश्ववर्ष में प्रवेश किया जो स्वर्ग के समान सुन्दन है। उस देश में देवताओं के समान सुन्दर और सुखी पुरुष निवास करते थे। अर्जुन ने उन सबको जीतकर अपने अधीन कर लिया और उप पर कल लगा दिया। इस प्रकार इधर-उधर से असंख्य रत्नों का संग्रह करके शक्तिशली अर्जुन ने नीलगिरी की यात्रा की और वहाँ के निवासियों को पराजित किया। तदनन्तर विशाल नीलगिरि को भी लाँघकर सुन्दर नरनारियों से भरे हुए रम्यक वर्ष में उन्होंने प्रवेश किया। उस देश को भी जीतकर अर्जुन ने वहाँ के निवासियों पर कर लगा दिया। तत्पश्चात गुह्यको द्वारा सुरक्षित प्रदेश को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। राजेन्द्र! वहाँ उन्हें सोने के मृग और पक्षी उपलब्ध हुए, जो देखने में बड़े ही रमणीय और मनोरम थे। उन्होंने यज्ञ वैभव की समृद्धि के लिये उन मृगों और पक्षियों को ग्रहण कर लिया। तदनन्तर महाबली पाण्डुनन्दन अन्य बहुत से रत्न लेकर गन्धवों द्वारा सुरक्षित प्रदेश में गये और गन्धर्वगणों सहित उस देश पर अधिकार जमा लिया। राजन्! वहाँ भी अर्जुन को बहुत से दिव्य रत्न पा्रप्त हुए। तदनन्तर उन्होंने श्वेत पर्वत पर जाकर वहाँ के निवासियों को जीता। फिर उस पर्वत को लाँघकर पाण्डुकुमार अर्जुन ने हिरण्यक वर्ष में प्रवेश किया। महाराज! वहाँ पहुँचकर वे उस देश के रमणीय प्रदेशों में विचरने लगे। बड़े-बड़े महलों की पड्क्तियों में भ्रमण करते हुए श्वेताश्व अर्जुन नक्षत्रों के बीच चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। राजेन्द्र! जब अर्जुन उत्तम बल और शोभा से सम्पन्न हो हिरण्यकवर्ष की विशाल सड़कों पर चलते थे, उस समय प्रासादशिखरों पर खड़ी हुई वहाँ की सुन्दरी स्त्रियाँ उनका दर्शन करती थीं। कुन्तीनन्दन अर्जुन अपने यश को बढ़ाने वाले थे। उन्होंने आभूषण धारण कर रक्खा था। वे शूर वीर, रथयुक्त, सेवकों से सम्पन्न और शक्तिशाली थे। उनके अंगों में कवच और मस्तक पर सुन्दर किरीट शोभा दे रहा था। वे कमर कसकर युद्ध के लिये तैयार थे और सब प्रकार की आवश्यक सामग्री उनके साथ थी। वे सुकुमार, अत्यन्त धैर्यवान्, तेज के पुंज, परम उत्तम, इन्द्र तुल्य पराक्रमी, शत्रुहन्ता तथा शत्रुओं के गजराजों की गति को रोक देने वाले थे। उन्हें देखकर वहाँ की स्त्रियों ने यही अनुमान लगाया कि इस वीर पुरुष के रूप में साक्षात शक्तिधारी कार्तिकेय पधारे हैं। वे आप में इस प्रकार बातें करने लगीं- ‘सखियो! ये जो पुरुषसिंह दिखायी दे रहे हैं, संग्राम में इनका पराक्रम अद्भुत है। इनके बाहुबल का आक्रमण होने पर शत्रुओं के समुदाय अपना अस्तित्व खो बैठते हैं।’ इस प्रकार की बातें करती हुई स्त्रियाँ बड़े प्रेम से अर्जुन की ओर देखकर उनके गुण गांती और उनके मस्तक पर फूलों की वर्षा करती थीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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