महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 75-78

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एकत्रिंश (31) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 75-78 का हिन्दी अनुवाद

उन्होंने सहदेव के लिये हाथी के पीठ पर बिछाने योग्य विचित्र कम्बल (कालीन) तथा हाथी दाँत और सुवर्ण के बने हुए पलंग दिये, जिनमें सोने तथा रत्न जड़े हुए थे ।। इसके सिवा बहुत से विचित्र और बहुमूल्य आभूषण भी भेंट किये। सुन्दर मूँगे, भाँति-भाँति के मणिरत्न, सोने के बर्तन, कलश, घड़े, विचित्र कड़ाहे और हजारों जलपात्र समर्पित किये। इनके सिवा चाँदी के भी बहुत से ऐस बर्तन दिये, जिनमें चित्रकारी की गयी थीं। कुछ ेसे शस्त्र भेंट किये, जिनमें सुवर्ण, मणि और मोती जड़े हुए थे ।। यज्ञ के फाटक पर लगाने योग्य चौदह ताड़ प्रदान किये। सुवर्णमय कमलपुष्प और मणिजटित शिविकाएँ भी दीं ।। बहुमूल्य मुकुट, सुनहले कुण्डल, सोने के बने हुए अनेकानेक पुष्प, सोने के ही हार तथा चन्द्रमा के समान उज्जवल एवं विचित्र शतावर्त शंख भेंट किये। श्रेष्ठ चन्दन, अनेेक प्रकार के सुवर्ण तथा रत्न, महँगे वस्त्र, बहुत से कम्बल, अनेक जाति के रत्न तथा और भी भाँति भाँति के बहुमूल्य पदार्थ राजा विभीषण ने सहदेव को भेंट किये । तथा उन्होंने नाना प्रकार के रत्न, चन्दन, अगुरु के काष्ठ, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य वस्त्र और विशेष मूल्यवान मणि रत्न भी उसके साथ भिजवाये। तदनन्तर घटोत्कच ने हाथ जोड़कर राजा विभीषण को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके वहाँ से प्रस्थान किया। राजन! घटोत्कच के साथ अट्टासी निशाचर उन सब रत्नों को पहुँचाने के लिये प्रसन्नता पूर्वक आये। इस प्रकार उन सब रत्नों को साथ ले घटोत्कच ने राक्षसों के साथ लंका से सहदेव के पड़ाव की ओर प्रस्थान किया और समुद्र लाँघकर वे सब के सब पाण्डुनन्दन सहदेव के निकट आ पहुँचे।
राजन्! सहदेव ने रत्न लेकर आये हुए भयंकर निशाचरों तथा घटोत्कच को भी देखा ।। उस समय उन राक्षसों को देखकर द्राविड़ सैनिक भयभीत हो सब और भागने लगे। इतने में ही भीमसेन कुमार घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आ हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।। पाण्डुकुमार सहदेव वह रत्न राशि देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने घटोत्कच को दोनों हाथों से पकड़कर गले लगाया और दूसरे राक्षसों की ओर देखकर भी बड़ी प्रसन्नता प्रकट की। इसके बाद समस्त द्राविड़ सैनिकों को विदा करके सहदेव वहाँ से लौटने की तैयारी करने लगे ।। तैयारी पूरी हो जाने पर प्रतापी और बुद्धिमान सहदेव इन्द्रपस्थ की ओर चल दिये। इस प्रकार बलपूर्वक जीतकर तथा सामनीति से समझा बुझाकर सब राजाओं को अपने अधीन करके उन्हें करद बनाकर शत्रुदमन माद्रीनन्दन इन्द्रप्रस्थ में वापस आ गये। रत्नों का भारी भार साथ लिये निशाचरों के साथ सहदेव ने इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय वे पैरों की धमक से सारी पृथ्वी को कम्पित करते हुए से चल रहे थे ।। राजन्! युधिष्ठिर को देखते ही सहदेव हाथ जोड़ नम्रता पूर्वक उनके चरणों में पड़ गये। फिर विनीत भाव से उनके समीप खड़े हो गये। उस समय युधिष्ठिर ने भी उनका बहुत सम्मान किया। लंका से प्राप्त हुई अत्यन्त दुर्लभ एवं प्रचुर धनराशियों को देखकर राजा युधिष्ठिर बड़ प्रसन्न और विस्मित हुए ।। भरतश्रेष्ठ जनमेजय! उस धनराशि में सहस्त्र कोटि से भी अधिक सुवर्ण था। विचित्र मणि एवं रत्न थे। गाय, भैंस, भेड़ और बकरियों की संख्या भी अधिक थी। राजन्! इन सबको महात्मा धर्मराज की सेवा में समर्पित करके कृतकृत्य हो सहदेव सुख पूर्वक राजधानी में रहने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व में सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय से सम्बन्ध रखने वाला इक्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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