महाभारत सभा पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-11
त्रयस्त्रिंश (33) अध्याय: सभा पर्व (राजसूय पर्व)
युधिष्ठिर के शासन की विशेषता, श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का राजसूययज्ञ की दीक्षा लेना तथा राजाओं, ब्राह्मणों एवं सगे सम्बन्धियों को बुलाने के लिये निमन्त्रण भेजना वैशम्पायनजी कहते हैं- कुरुनन्दन! इस प्रकार सारी पृथ्वी को जीतकर अपने धर्म के अनुसार बर्ताव करते हुए पाँचों भाई पाण्डव इस भूमण्डल का शासन करने लगे। भीमसेन आदि चारों भाईयों के साथ राजा युधिष्ठिर सम्पूर्ण प्रजापर अनुग्रह करते हुए सब वर्ण के लोगों को संतुष्ट रखते थे। युधिष्ठिर किसी का भी विशेष न करके सबके हित साधन में लगे रहते थे। ‘सबको तृप्त एवं प्रसन्न किया जाय, खजाना खोलकर सबको खुले हाथ दान दिया जाय, किसी पर बल प्रयोग न किया जाय, धर्म! तुम धन्य हो।’ इत्यादि बातों के सिवा युधिष्ठिर के मुख से और कुछ नहीं सुनाई पड़ता था। उनके ऐस बर्ताव के कारण सारा जगत उनके प्रति वैसा ही अनुराग रखने लगा, जैसे पुत्र पिता के प्रति अनुरक्त होता है। राजा युधिष्ठिर से द्वेष रखने वाला कोई नही था, इसीलिये वे ‘अज्ञातशत्रु’ कहलते थे। धर्मराज युधिष्ठिर प्रजा की रक्षा, सत्य का पालन और शत्रुओं का संहार करते थे। उनके इन कार्यों से निश्चिन्त एवं उतसाहित होकर प्रजावर्ग के सब लोग अपने अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों के पालन में संलग्न रहते थे। न्यायपूर्वक कर लेने और धर्मपूर्वक शासन करने से उनके राज्य में मेघ इच्छानुसार वर्षा करते थे। इस प्रकार युधिष्ठिर का सम्पूर्ण जनपद धन धान्य से सम्पन्न हो गया था। गोरक्षा, खेती और व्यापार आदि सभी कार्य अच्छे ढंग से होने लगे। विशेषत: राजा की सुव्यवस्था से ही यह सब कुछ उत्तमरूप से सम्पन्न होता था। राजन्! औरों की तो बात कही क्या है, चोरों, ठगों, राजा अथवा राजा के विश्वासपात्र व्यक्तियों के मुख से भी वहाँ कोई झूठी बात नहीं सुनी जाती थी। केवल प्रजा के साथ ही नहीं, आपस में भी वे लोग झूठ कपट का बर्ताव नहीं करते थे। धर्मपरायण युधिष्ठिर के शासनकाल में अनावृष्टि, अतिवृष्टि, रोग व्याधि तथा आग लगने आदि उपद्रवों का नाम भी नहीं था। राजा लोग उनके यहाँ स्वाभाविक भेंट देने अथवा उनका कोई प्रिय कार्य करने के लिए ही आते थे, युद्ध आदि दूसरे किसी काम से नहीं। धर्मपूर्वक प्राप्त होने वाले धन की आय से उनका महान धन भंडार इतना बढ़ गया था कि सैकड़ों वर्षों तक खुले हाथ लुटाने पर भी उसे समाप्त नहीं किया जा सकता था। कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने अन्न वस्त्र के भंडार तथा खजाने का परिणाम जानकर यज्ञ करने का ही निश्चिय किया। उनके जितने हितैषी सुह्रद थे, वे सभी अलग-अलग और एक साथ यही कहने लगे- ‘प्रभो! यह आपके यज्ञ करने का उपयुक्त समय आया है, अत: अब उसका आरम्भ कीजिये’। वे सुह्रद इस तरह की बातें कर ही रहे थे कि उसी समय भगवार श्रीहरि आ पहुँचे। वे पुराण पुरुष, नारायण ऋषि, वेदात्मा एवं विज्ञानीजानों के लिए भी अगम्य परमेश्वर हैं। वे ही स्थावर जंगम प्राणियों के उत्तम उत्पत्ति स्थान और लय के अधिष्ठान हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों कालों के नियन्ता हैं। वे ही केशी दैत्य को मारने वाले केशव हैं।
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