महाभारत सभा पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-14

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षट्त्रिंश (36) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

राजसूययज्ञ में ब्राह्मणों तथा राजाओं का समागम, श्रीनारदजी के द्वारा श्रीकृष्ण महिमा का वर्णन और भीष्मजी की अनुमति से श्रीकृष्ण की अग्रपूजा

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अभिषेचनीय१ कर्म के दिन सत्कार के योग्य महर्षिगण और ब्राह्मण लोग राजाओं के साथ यज्ञ भवन में गये। महात्मा राजा युधिष्ठिर के उस यज्ञ भवन में राजर्षिर्यो के साथ बैठे हुर नारद आदि महर्षि उस समय ब्रह्माजी की सभा में एकत्र हुए देवताओं और देवर्षियों के समान सुशोभित हो रहे थे। बीच-बीच में यज्ञ सम्बन्धी एक-एक कर्म से आवकाश पाकर अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान् आपस में जल्प२ (वाद-विवाद) करते थे। ‘यह इसी प्रकार होना चाहिये,’ ‘नहीं, ऐसे नहीं हो चाहिये,’ ‘यह बात ऐसी ही है, ऐसी ही है, इससे भिन्न नहीं है। इस प्रकार कह-कहकर से वितण्डावादी३ द्विज वहाँ वाद विवाद करते थे। कुछ विद्वान शास्त्र निश्चित नाना प्रकार के तर्कों और युक्तियों से दुर्बल पक्षों को पुष्ट और पुष्ट पक्षों को दुर्बल सिद्ध कर देते थे। वहीं कुछ मेधावी पण्डित, जो दूसरों के कथन में दोष दिखाने के ही अभ्यासी थे, अन्य लोगों के कहे हुए अनुमान साधित विषय को उसी तरह बीच से ही लोक लेते थे, जैसे बाज मांस के लोथड़े को आकाश में ही एक दूसरे से छीन लेते हैं। उन्हीं में कुछ लागे धर्म और अर्थ के निर्णय में अत्यनत निपुण थे। कोई महान व्रत का पालन करने वाले थे। इस प्रकार सम्पूर्ण भाष्य के विद्वानों में श्रेष्ठ वे महात्मा अच्छी कथाएँ और शिक्षाप्रद बातें कहकर स्वयं भी सुखी होते और दूसरों को भी प्रसन्न करते थे। जैसे नक्षत्रमालाओं द्वारा मण्डित विशाल आकाश मण्डल की शोभा होती है, उसी प्रकार वेदज्ञ देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों और महर्षियों से वह वेदी सुशोभित हो रही थी। राजन! युधिष्ठिर की यज्ञशाला के भीतर उस अन्तर्वेदी के आस पास उस समय न तो काई शूद्र था और न व्रतहीन द्विज ही। परम बुद्धिमान राजलक्ष्मी सम्पन्न धर्मराज युधिष्ठिर के उस धन वैभव और यज्ञविधि को देखकर देवर्षि नारद को बड़ी प्रसन्नता हुई। जनमेजय! उस समय वहाँ समस्त क्षत्रियों का सम्मेलन देखकर मुनविर नादरजी सहसा चिन्तित हो उठे। १. जिसमें पूजनीय पुरुषों का अभिषेक- अर्ध्य देकर सम्मान किया जाता है, उस कर्म का नाम अभिषेचनीय है। यह राजसूययज्ञ का अंगभूत सोमयागविशेष है। २. यह एक प्रकार का वाद है, जिसमें वादी छल, जाति और निग्रहस्थान को लेकर अपने पक्ष का मण्डन और विपक्षी के पक्ष का खण्डन करता है। इसमें वादी का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय नहीं होता, किंतु स्वपक्ष स्थापन और परपक्षखण्ड इनमात्र होता है। वाद के समान इसमें भी प्रतिज्ञा, हेतु आदि पाँच अवयव होते हैं। ३. जिस बहस या वाद विवाद का उद्देश्य अपने पक्ष की स्थापना या परपक्ष का खण्डन होकर व्यर्थ की बकवादमात्र हो, उसका नाम ‘वितण्डा’ है। नरश्रेष्ठ! भगवान के सम्पूर्ण अंशों (देवताओं) सहित अवतार लेने के सम्बन्ध में ब्रह्मलोक में पहले जो चर्चा हुई थी, वह प्राचीन घटना उन्हें याद आ गयी। कुरुनन्दन! नारदजी ने यह जानकर कि राजाओं के इस समुदाय के रूप में वास्तव में देवताओं का ही समागम हुआ है, मन ही मन कमलनयन भगवान श्रीहरि का चिन्तन किया। वे सोचने लगे- ‘अहो! सर्वव्यापक देवशत्रु विनाशक वैरिनगरि विजयी साक्षात् भगवान नारायण ने ही अपनी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये क्षत्रियकुल में अवतार ग्रहण किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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