महाभारत सभा पर्व अध्याय 37 श्लोक 19-31
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
राजाओं ! हम सब लोग इन महात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर को जो कर दे रहे है, वह भय, लोभ अथवा कोई विशेष आश्वासन मिलने के कारण नहीं। हमने तो यही समझा था कि यह धर्माचरण में संलग्न रहने वाला क्षत्रिय सम्राट का पद पाना चाहता है तो अच्छा ही है। यही सोचकर हम उसे कर देते हैं, पंरतु यह राजा युधिष्ठिर हम लोगों को नहीं मानता है। युधिष्ठिर! इससे बढ़कर दूसरा अपमान और क्या हो सकता है कि तुमने राजाओं की सभा में जिसे राजोचित च्रि छत्र चँवर आदि प्राप्त नहीं हुआ है, उस कृष्ण की अर्ध्य के द्वारा पूजा की है। धर्मपुत्र युधिष्ठिर को अकस्मात ही धर्मात्मा होने का यश प्राप्त हो गया है, अन्यथा कौन ऐसा धर्मनिष्ठ पुरुष होगा जो किसी धर्मच्युत की इस प्रकार पूजा करेगा। वृष्णिकुल में पैदा हुए इस दुरात्मा ने तो कुछ ही दिन पहले महात्मा राजा जरासंध का अन्यायपूर्वक वध किया है। आज युधिष्ठिर का धर्मात्मापन दूर निकल गया, क्योंकि इन्होंने कृष्ण को अर्ध्य निवेदन करके अपनी कायरता ही दिखायी है। (अब शिशुपाल ने भगवान श्रीकृष्ण को देखकर कहा-) माधव! कुन्ती के पुत्र डरपोक, कायर और तपस्वी हैं। इन्होंने तुम्हें ठीक-ठीक न जानकर यदि तुम्हारी पूजा कर दी तो तुम्हें तो समझना चाहिये था कि तुम किस पूजा के अधिकारी हो? अथवा जनार्दन! इन कायरों द्वारा उपस्थित की हुई इस अग्रपूजा को उसके योग्य न होते हुए भी तुमने क्यों स्वीकार कर लिया? जैसे कुत्ता एकान्त में चूकर गिरे हुए थोड़े से हविष्य (धृत) को चाट ले और अपने को धन्य-धन्य मानने लगे, उसी प्रकार तुम अपने लिये अयोग्य पूजा स्वीकार करके अपने आपको बहुत बड़ा मान रहे हो। कृष्ण! तुम्हारी इस अग्रपूजा से हम राजाधिराजों का कोई अपमान नहीं होता, परंतु ये कुरुवंशी पाण्डव तुम्हें अर्ध्य देकर वास्वत में तुम्ही को ठग रहे हैं। मधुसूदन! जैसे नपुंसक का ब्याह रचाना और अंधे को रूप दिखाना उनका उपहास ही करना है, उसी प्रकार तुम जैसे राज्यहीन की यह राजाओं के समान पूजा भी विडम्बना मात्र ही है। आज मैंने राजा युधिष्ठिर को देख लिया, भीष्म भी जैसे हैं, उनको भी देख लिया और इस वासुदेव कृष्ण का भी वास्तविक रूप क्या है, यह भी देख लिया। वास्तव में ये सब ऐसी ही हैं। उनसे ऐसा कहकर शिशुपाल अपने उत्तम आसन से उठकर राजाओं के साथ उस सभा भवन से जाने को उद्यत हो गया।
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