महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 32

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 32 का हिन्दी अनुवाद

द्वारकापुरी में सभी के घरों में घंटा लगाया गया है। यदुसिंह श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर वैजयन्ती पताकाओं से युक्त पर्वत स्थापित किया है। वहां हसंकूट पर्वत का शिखर है, जो साठ ताड़ के बराबर ऊँचा और आधा योजन चौड़ा है। वहीं इन्द्रघुम्र सरोवर भी है, जिसका विस्तार बहुत बड़ा है। वहाँ सब भूतों के देखते-देखते किन्नरों के संगीत का महान् शब्द होता रहता है। वह भी अमिततेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण का ही लीलास्थल है। उसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि है। मेरुपर्वत का जो सूर्य के मार्ग तक पहुँचा हुआ जाम्बूनदमय दिव्य और त्रिभुवन विख्यात उत्तम शिखर है, उसे उखाड़कर भगवान श्रीकृष्ण कठिनाई उठाकर भी अपने महल में ले आये हैं। सब प्रकार की ओषधियों से अलंकृत वह मेरुशिखर द्वाराका में पूर्ववत प्रकाशित है। शत्रुओं को संताप, देने वाले भगवान श्रीकृष्ण जिसे इन्द्र भवन से हर ले आये थे, वह पारिजात वृक्ष भी उन्होंने द्वारका में ही लगा रखा है। भगवान वासुदेव ने ब्रह्मलोक के बड़े-बड़े वृक्षों को भी लाकर द्वारका में लगया है। साल, ताल, अश्वकर्ण (कनेर), सौ शाखाओं से सुशोभित वटवृक्ष, भल्लातक (भिलावा), कपित्थ (कैथ), चन्द्र (बड़ी इलाचयी के) वृक्ष, चम्पा, खजूर और केतक (केवड़ा)- ये वृक्ष वहाँ सब ओर लगाये गये थे। द्वारका में जो पुष्करिणियाँ और सरोवर हैं, ये कमल पुष्पों से सुशोभित स्वच्छ जल से भरे हुए हैं। उनकी आभा लाल रंग की है। उनमें सुगन्धयुक्त उत्पल खिले हुए हैं। उनमें स्थित बालू के कण मणियों और मोतियों के चूर्ण जैसे जान पड़ते हैं। वहाँ लगाये हुए बड़े-बड़े वृक्ष उन सरोवरों के सुन्दर तटों की शोभा बढ़ाते हैं। जो वृक्ष हिमालय पर उगते हैं तथा जो नन्दनवन में उत्पन्न होते हैं, उन्हें भी यदुप्रवर श्रीकृष्ण ने वहाँ लाकर लगाया है। कोई वृक्ष लाल रंग के हैं, कोई पीत वर्ण के हैं और कोई अरुण कान्ति से सुशोभित हैं तथा बहुत से वृक्ष ऐसे हैं, जिन्में श्वेत रंग के पुष्प शोभा पाते हैं। द्वारका के उपवनों में लगे हुए पूर्वोक्त सभी वृक्ष सम्पूर्ण ऋतुओं के फलों से परिपूर्ण हैं। सहस्त्रदल कमल, सहस्त्रों मन्दार, अशोक, कर्णिकार, तिलक, नागमल्लिका, कुरव (कटसरैया), नागपुष्प, चम्पक, तृण, गुल्म, सप्तपर्ण (छितवन), कदम्ब, नीप, कुरबक, केतकी, केसर, हिंताक, तल, ताटक, ताल, प्रियंगु, वकुल (मौलसिरी), पिण्डिका, बीजूर (बिजौरा), दाख, आँवला, खजूर, मुनक्का, जामुन, आम, कटहल, अंकोल, तिल, तिन्दुक, लिकुच (लीची), आमड़ा, क्षीरिका (काकोली नाम की जड़ी या पिंडखजूर), कण्टकी (बेर), नारियल, इंगुद (हिंगोट), उत्क्रोशकवन, कदलीवन, जाति (चमेली), मल्लिक (मेातिया), पाटल, भल्लातक, कपित्थ, तैतभ, बन्धुजीव (दुपहरिया), प्रवाल, अशोक और काश्मरी (गाँभारी), आदि सब प्रकार के प्राचीन वृक्ष, प्रियंगुलता, बेर, जौ, स्पन्दन, चन्दन, शमी, बिल्व, पलाश, पाटला, बड़, पीपल, गूृलर, द्विदल, पालाश, पारिभद्रक, इन्द्रवृक्ष, अर्जुन वृक्ष, अश्वत्थ, चिरिबिल्व, सौभन्चन, भल्लट, अश्व पुष्प, सर्ज, ताम्बूललता, लवंग, सुपरी तथा नाना प्रकार के बाँस ये सब द्वारकापुरी में श्रीकृष्ण भवन के चारों ओर लगाये हैं। नन्दवन में और चैत्ररथवन जो-जो वृक्ष होते हैं, वे सभी युदपति भगवान श्रीकृष्ण ने लाकर यहाँ सब ओर लगाये हैं। भगवान श्रीकृष्ण के गृहोद्यान में कुमुद और कमलों से भरी हुई कितनी ही छोटी बावलियाँ हैं। सहस्त्रों कुएँ बने हुए हैं। जल से भरी हुई बड़ी-बड़ी वापिकाएँ भी तैयार करायी गयी हैं, जो देखने में पीत वर्ण की है और जिनकी बालुकाएँ लाल हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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