महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 34
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
तत्पश्चात भाई बलरामजी के साथ जाकर श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम किया। उस समय पिता वसुदेव के नेत्रों में प्रेम के आँसू भर गये और उकना ह्रदय आनन्द के समुद्र में निमग्न हो गया। अन्धक और वृष्णिवंश के सब लोगों ने बलराम और श्रीकृष्ण को ह्रदय से लगाया। भगवान श्रीकृष्ण ने रत्न और धन की उस राशि को एकत्र करके अलग-अलग बाँट दिया और सम्पूर्ण वृष्णिवंशयों से कहा- ‘यह सब आप लोग ग्रहण करें’। तदनन्तर यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों में जो श्रेष्ठ पुरुष थे, उन सबसे क्रमश: मिलकर सब यादवों को नाम ले लेकर बुलाया और उन सबको वे सभी रत्नमय धन पृथक-पृथक बाँट दिये। जैसे पर्वत की कन्दरा सिंहों से सुशोभित होती है, उसी प्रकार द्वारकापुरी उस समय भगवान श्रीकृष्ण, देवराज इन्द्र तथा वृष्णिवंशी वीर पुरुषसिंहों से अत्यन्त शोभा पा रही थी। जब सभी यदुवंशी अपने-अपने आसनों पर बैठे गये, उस समय देवताओं के स्वामी महायशस्वी महेन्द्र अपनी कल्याणमयी वाणी द्वारा कुुकुर और अन्धक आदि यादवों तथा राजा उग्रसेन का हर्ष बढ़ाते हुए बोले। इन्द्र ने कहा- यदुवंशी वीरो! परमात्मा श्रीकृष्ण का मनुष्य योनि में जिस उद्देश्य को लेकर अवतार हुआ है और भगवान वासुदेव ने इस सयम जो महान पुरुषार्थ किया है, वह सब मैं संक्षेप में बताऊँगा। शत्रुओं का दमन करने वाले कमल नयन श्रीहरि ने एक लाख दानवों का संहार करके उस पाताल विवर में प्रवेश किया था, जहाँ पहले के प्रह्वाद, बलि और शम्बर आदि दैत्य भी नहीं पहुँच सके थे। भगवान आप लोगों के लिये यह धन वहीं से लाये हैं। बुद्धिमान श्रीकृध ने पाश सहित मुर नामक दैत्य को कुचलकर पंचजन नाम वाले रासक्षों का विनाश किया और शिला समूहों को लाँघकर सेवक गणों सहित निशुम्भ को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात इन्होंने बलवान एवं पराक्रमी दानव हयग्रीव पर आक्रमण करके उसे मार गिराया ओर भौमासुर का भी युद्ध में संहार कर डाला। इसके बाद केशव ने माता आदिति के कुण्डल प्रापत करके उन्हें यथा स्थान पहुँचाया और स्वर्ग लोक तथा देवताओं में अपने महान् यश का विस्तार किया। अन्धक और वृष्णिवंश के लोक श्रीकृष्ण के बाहुबल का आश्रय लेकर शोक, भय और बाधाओं से मुक्त हैं। अब ये सभी नाना प्रकार के यज्ञों तथा सोमरस द्वारा भगवान का यजन करें। अब पुन: बाणासुर के वध का अवसर उपस्थित होने पर मैं तथा सब देवता, वसु और साध्यगण मधुसूदन श्रीकृष्ण की सेवा में उपस्थित होंगे। भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर! समस्त कुकुर और अन्धकवंश के लोगों से ऐसा कहकर सबसे विदा ले देवराज इन्द्र ने बलराम, श्रीकृष्ण और वसुदेव को ह्रदय से लगाया। प्रद्युम्न, साम्ब, निशठ, अनिरुद्ध, सारण, बभ्रु, झल्लि, गद, भानु, चारुदेष्ण, सारण और अक्रूर का भी सत्कार करके वृत्रासुर निषूदन इन्द्र ने पुन: सात्यकि से वार्तालाप किया। इसके बाद वृष्धि और कुकुरवंश के अधिपति राजा उग्रसेन को गले लगाया। तत्पश्चात भोज, कृतवर्मा तथा अन्य अन्धकवंशी एवं वृष्णिवंशियों का आलिंगन करके देवराज ने अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण से विदा ली। तदनन्तर शचीपति भगवान इन्द्र सब प्राणियों के देखते-देखते श्वेतपर्वत के समान सुशोभित ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हुए। वह श्रेष्ठ गजराज अपनी गम्भीर गर्जना से पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक को बारंबार निनादित सा कर रहा था।
« पीछे | आगे » |