महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 6

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अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 6 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्चात् दीर्घकाल व्यतीत होने पर वे दोनों रणोन्मत्त दैत्य प्रसन्न होकर सर्वशक्तिमान् भगवान नारायण से बोले- ‘सुग्श्रेष्ठ! हम दोनों तुम्हारे युद्ध कौशल से बहुत प्रसन्न है। तुम हमारे लिये स्पृहणीय मृत्यु हो। हमें ऐसी जगह मारो, जहाँ की भूमि पानी में डूबी हुई न हो। ‘तथा मरने के पश्चात हम दोनों तुम्हारे पुत्र हों। जो हमें युद्ध में जीत ले, हम उसी के पुत्र हों- ऐसी हमारी इच्छा है।’ उनकी बात सुनकर भगवान नारायण ने उन दोनों दैत्यों को युद्ध में पकड़कर उन्हें दोनों हाथों से दबाया और मधु तथा कैटभ दोनों को अपनी जाँघों पर रखकर मार डाला। मरने पर उन दानों की लाशें जल में डूबकर एक हो गयीं। जल की लहरों से मथित होकर उन दोनों दैत्यों ने जो मेद छोड़ा, उससे आच्छादित होकर वहाँ का जल अदृश्य हो गया। उसी पर भगवान नारायण ने नाना प्रकार के जीवों की सृष्टि की। राजन् कुन्तीकुमार! जन दोनों दैत्यों के मेद से सारी वसुधा आच्छादित हो गयी अत: तभी से यह मही ‘मेदिनी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। भगवान पद्मनाभ के प्रभाव से यह मनुष्यों के लिये शाश्वत आधार बन गयी। भीष्मजी कहते हैं- कुरुनन्दन! भगवान के अब तक कई सहस्त्र अवतार हो चुके हैं। मैं यहाँ कुछ अवतारों का यथाशक्ति वर्णन करूँगा। तुम ध्यान देरक उनका वृत्तान्त सुनों। पूर्वकाल में जब भगवान पद्मनाभ समुद्र के जल में शयन कर रहे थे, पुष्कर में उनसे अनेक देवताओं और महर्षियों का प्रादुर्भाव हुआ। ‘यह भगवान का ‘पोष्करिक’ (पुष्करसम्बन्धी) पुरातन आवतार कहा गया है, जो वैदिक श्रुतिों द्वारा अनुमोदित है। महात्मा श्रीहरि का जो वराह नामक अवतार है, उस में भी प्रधानत: वैदिक श्रुति ही प्रमाण है। उस अवतार के समय भगवान ने वराहरूप धारण करके पर्वतों और वनों सहित सारी पृविी को जल से बाहर निकाला था। चारों वेद ही भगवान वराह के चार पैर थे। यूप ही उनकी दाढ़ थे। क्रतु (यज्ञ) ही दाँत और ‘चिति’ (दृष्टि का चयन) ही मुख थे। अग्नि जिह्वा, कुश रोम तथा ब्रह्म मस्तक थे। वे महान् तप से सम्पन्न थे। दिन और रात ही उनके दो नेत्र थे। उनका स्वरूप दिव्य था। वेदांग ही उनके विभिन्न अंग थे। श्रुतियाँ ही उनके लिए आभूषण का काम देती थीं। घी उनकी नासिका, स्त्रुवा उनकी यूथुन और सामवेद का स्वर ही उनकी भीषण गर्जना थी। उनका शरीर बहुत बड़ा था। धर्म और सत्य उनका स्वरूप था, वे अलौकिक तेज से सम्पन्न थे। वे विभिन्न कर्मरूपी विक्रम से सुशोभित हो रहे थे, पशु उनके घुटनों के स्थान में थे और महान वृषभ (धर्म) ही उनका श्रीविग्रह था। उद्राता का होमरूप कर्म उनका लिंग था, फल और बीत ही उनके लिये महान औषध थे, वे बाह्य और आभयन्तर जगत के आत्मा थे, वैदिक मंत्र ही उनके शारीरिक अस्थि विकार थे। देखने में उनका स्वरूप बड़ा ही सौम्य था। यज्ञ की वेदी ही उनके कंधे, हविष्य सुगन्ध और हव्य कव्य आदि उनके वेग थे। प्रागवंश (यज मानगूह एवं पत्नीशाला) उनका शरीर कहा गया है। वे महान तेजस्वी और उनके प्रकार की दीक्षाओं से व्याप्त थे। दक्षिणा उनके ह्रदय के स्थान में थीं, वे महान् योगी और महान शास्त्रस्वरूप थे। प्रीतिकारक उपाकर्म उनके ओष्ठ और प्रवर्ग्य कर्म ही उनके रत्नों के आभूषण थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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