महाभारत सभा पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-19
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)
भीष्म जी के द्वारा शिशुपाल के जन्म के वृत्तान्त का वर्णन
भीष्मजी बोले- भीमसेन! सुनो, चेदिराज दमघोष के कुल में जब यह शिशुपाल उत्पन्न हुआ, उस समय इसके तीन आँखें और चार भुजाएँ थीं। इसने रोने की जगह गदहे के रेंकने की भाँति शब्द किया और जोर जोर से गर्जना भी की। इससे इसके माता-पित्या अन्य भाई बन्धुओं सहित भय से थर्रा उठे। इसकी वह विकराल आकृ¸ति देख उन्होंने इसे त्याग देने का निश्चिय किया। पत्नी, पुरोहित तथा मन्त्रियों सति चेदिराज ह्रदय चिन्ता से मोहित हो रहा था। उस समय आकाशवाणी हुई- ‘राजन्! तुम्हारा यह पुत्र श्रीसम्पन्न और महाबली है, अत: तुम्हें इससे डरना नहीं चाहिये। तुम शान्तचित्त होकर इस शिशु का पालन करो। ‘नरेश्वर! अभी इसकी मृत्यु नही आयी है औ न काल ही उपस्थित हुआ है। जो इसकी मृत्यु का कारण है तथा जो शस्त्र द्वारा इसका वध करेगा, वह अन्यत्र उत्पन्न हो चुका है’। तदनन्तर यह आकाशवाणी सुनकर उस अन्तर्हित भूत को लक्ष्य करके पुत्रस्ने से संतप्त हुई इसकी माता बोली- ‘मेरे इस पुत्र के विषय में जिन्होंने यह बात कही है, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करती हूँ। चाहे वे कोई देवता हों अथवा और कोई प्राणी? वे फिर मेरे प्रश्न का उत्तर दें। मैं यह यथार्थ रूप से सुनना चाहती हूँ कि मेरे इस पुत्र की मृत्यु में कौन निमित्त बनेगा?’ तब पुन: उसी अदृश्य भूत ने यह उत्तर दिया- ‘जिसके द्वारा गोद में लिये जाने पर पांच सिरवाले दो सर्पों की भाँति इसकी पाँचों अँगुलियों से युक्त दो अधिक भुजाएँ पृथ्वी पर गिर जायँगी और जिसे देखकर इस बालक का ललाटवर्ती तीसरा नेत्र भी ललाट में लीन हो जायगा, वही इसकी मृत्यु में निमित्त बनेगा'। चार बाँह और तीन आँख वाले बालक के जन्म का समाचार सुनकर भूण्डल के सभी नरेश उसे देखने के लिये आये। चेदिाज ने अपने घर पधारे हुए उन सभी नरेशों का यथायोग्य सत्कार करके अपने पुत्र को हर एक की गोद में रखा। इस प्रकार वह शिशु क्रमश: सहस्त्रों राजाओं की गोद में अलग-अलग रखा गया, परंतु मृत्युसूचक लक्षण कहीं प्राप्त नही हुआ। द्वारका में यही समाचार सुनकर महाबली बलराम और श्रीकृष्ण दोनों यदुवंशी वीर अपनी बुआ से मिलने के लिये उस समय चेदिराज्य की राजधानी में गये। वहाँ बलराम और श्रीकृष्ण ने बड़े-छोटे के क्रम से सबको यथायोग्य प्रणाम किया एवं राजा दमघोष और अपनी बुआ श्रुतश्रवा से कुशल और आरोग्य विषयक प्रश्न किया। तत्पश्चात दोनों भाई एक उत्तम आसन पर विराजमान हुए। महादेवी श्रुतश्रवा ने बड़े प्रेम से उन दोनों वीरों का सत्कार किया और स्वयं ही अपने पुत्र को श्रीकृष्ण की गोद में डाल दिया। उनकी गोद में रखते ही बालक की वे दोनों बाँहें गिर गयीं और ललाटवार्ती नेत्र भी वहीं विलीन हो गया। यह देखकर बालक की माता भयभीत हो मन ही मन व्यथित हो गयी और श्रीकृष्ण से वर माँगती हुई बोली- ‘महाबाहु श्रीकृष्ण! मैं भय से व्याकुल हो रही हूँ। मुझे इस पुत्र की जीवन रक्षा के लिये कोई वर दो।
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