महाभारत सभा पर्व अध्याय 50 श्लोक 20-36

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एकोनन्चाशत्तम (49) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: एकोनन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद

नीप, चित्रक, कुुकुर, कारस्कर तथा लोहजंघ आदि क्षत्रिय नरेश युधिष्ठिर के घर में सेवकों की भाँति सेवा करते हुए शोभा पा रहे थे। हिमालय प्रदेश तथा समुद्री द्वीपों के रहने वाले और रत्नों की खानों के सभी अधिपति म्लेच्छजातीय नरेश युधिष्ठिर के घर में प्रवेश करने नहीं पाते थे, उन्हें महल से दूर ही ठहराया गया था। महाराज! मुझे अन्य सब भाइयों से ज्येष्ठ और श्रेष्ठ मानकर युधिष्ठिर ने सत्कार पूर्वक रत्नों की भेंट लेने के काम पर नियुक्त कर दिया था। भारत! वहाँ भेंट लाये हुए नरेशों के द्वारा उपस्थित श्रेष्ठ और बहुमूल्य रत्नों की जो राशि एकत्र हुई थी, उसका आरपार दिखायी नहीं देता था। उस रत्नराशि को ग्रहण करते करते जब मेरा हाथ थक गया, तब मेरे थक जाने पर राजा लोग रत्न राशि लिये बहुत दूर तक खड़े दिखायी देने लगते थे। भारत! बिन्दु सरोवर से लाये हुए रत्नों द्वारा मयासुर ने एु कृत्रिम पुष्करिणी का निर्माण किया था, जो स्फटिकमणि की शिलाओं से आच्छादित है। वह मुझे जल से भरी हुई सी दिखायी दी। भारत! जब मैं ससमें उतरने के लिये वस्त्र उठाने लगा, तब भीमसेन ठठाकर हँस पड़े। शत्रु की विशिष्ट समृद्धि से मैं मूढ़ सा हो रहा था और रत्नों से रहित तो था ही। उस समय वहाँ यदि मैं समर्थ होता तो भीमसेन को वहीं मार गिराता। राजन्! यदि मैं भीमसेन को मारने का उद्योग करता तो मेरी भी शिशुपाल की सी ही दशा हो जाती, इसमें संशय नहीं है। भारत! शत्रु केे द्वारा किया हुआ उपहास मुझे दज्ध किये देता है। नरेश्वर! मैंने पुन: एक वैसी ही बाबली को देखकर, जो कमलों से सुशोभित हो रही थी, समझा कि यह भी पहली पुष्करिणी की भाँति स्फटिकशिला से पाटकर बराबर कर दी गयी होगी, पंरतु वह वास्तव में जल से परिपूर्ण थी, इसलिेय मैं भ्रम से उसमें गिर पड़ा। वहाँ श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ मेरी ओर देखकर जोर जोर से हँसने लगे। स्त्रियों सहित द्रौपदी भी मेरे ह्रदय में चोट पहुँचाती हुई हँस रही थी। मेरे सब कपड़े जल में भीग गये थे, अत: राजा की आज्ञा से सेवकों ने मुझे दूसरे वस्त्र दिये। यह मेरे लिये बड़े दु:ख की बात हुई। महाराज! एक और वन्चना मुझे सहनी पड़ी, जिसे बताता हूँ, सुनिये। एक जगह बिना द्वार के ही द्वार की आकृति बनी हुई थी, मैं उसी में निकलने लगा, अत: शिला से टकरा गया। जिससे मेरे ललाट में बड़े जोर की चोट लगी। उस समय नकुल और सहदेव ने दूर से मुझे टकराते देख निकट आकर अपने हाथों से मुझे पकड़ लिया और दोनों भाई साथ रहकर मेरे लिये शोक करने लगे। वहाँ सहदेव ने मुझे आश्यर्च में डालते हुए बार-बार यह कहा- ‘राजन्! यह दरवाजा है, इधर चलिये'। महाराज! वहाँ भीमसेन ने मुझे ‘धृतराष्टपुत्र’ कहकर सम्बोधित किया और हँसते हुए कहा- ‘राजन्! इधर दरवाजा है’। मैंने उस सभा में जो-जो रत्न देखे हैं, उनके पहले कभी नाम भी नहीं सुने थे, अत: इन सब बातों के लिये मेरे मन में बड़ा संताप हो रहा है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व में दुयो्रधन संतापविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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