महाभारत सभा पर्व अध्याय 58 श्लोक 20-21

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अष्टपअशत्ततम (58) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टपअशत्ततम अध्याय: श्लोक 20-21 का हिन्दी अनुवाद

बह्रीक द्वारा जोते हुए रथ पर बैठकर शत्रुसूदन पाण्‍डु-कुमार युधिष्ठिर ने अपने भाईयों के साथ हस्तिनापुर यात्रा प्रारम्‍भ की। वे अपनी राजलक्ष्‍मी से दे्दीप्‍यमान हो रहे थे । उन्‍होंने ब्राह्माण को आगे करके प्रस्‍थान किया। सबसे पहले राजा युधिष्ठिर ने अपने सेवकों को हस्तिनापुर की ओर चलने का आदेश दिया । वे नरश्रेष्‍ठ राजसेवक महाराज की आज्ञा का पालन करने में तत्‍पर हो गये। तत्‍पश्‍चात् महातेजस्‍वी राजा युधिष्ठिर समस्‍त सामग्रियों से सुसज्जित हो ब्राह्माणों से स्‍वस्ति वाचन कराकर पुरोहित धौम्‍य के साथ राजभवन से बाहर निकले। यात्रा की सफलता के लिये उन्‍होंने ब्राह्माणों को विधिपूर्वक धन देकर और दूसरों को भी मनोवाछित वस्‍तुएँ अर्पित करके यात्रा प्रारम्‍भ की। राजा के बैठने योग्‍य एक साठ वर्ष का गजराज सब आवश्‍यक सामग्रियों से सु‍सज्जित करके लाया गया । वह समस्‍त शुभ लक्षणों से सम्‍पन्‍न था। उसकी पीठ पर सोने का सुन्‍दर हौदा कसा गया था। महाराज युधिष्ठिर (पूर्वोक्‍त रथ से उतर कर) उस गजराज पर आरूढ़ हो हौदे में बैठे। उस समय वे हार, किरीट तथा अन्‍य सभी आभूषणों से विभूषित हो अपनी स्‍वर्णगौर-कान्ति तथा उत्‍कृष्‍ट राजोचित शोभा से सुशोभित हो रहे थे। उन्‍हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सोने की वेदी पर स्‍थापित अग्निदेव घी की आहुति से प्रज्‍वलित हो रहे हों ॥ तदनन्‍दर हर्ष में भरे हुए मनुष्‍यों तथा वाहनों के साथ राजा युधिष्ठिर वहाँ से चल पडे़। वे (राज परिवार के लोगों से भरे हुए पूर्वोक्‍त ) रथ के महान् घोष से समस्‍त आकाशमण्‍डल को गुँजाते जा रहे थे। सूत, मागध और बन्‍दीजन नाना प्रकार की स्‍तुतियों द्वारा उनके गुण गाते थे । उस समय विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर अपनी किरणों से आवृत हुए सूर्यदेव की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके मस्‍तकपर श्‍वेत छत्र तना हुआ था, जिससे राजा युधिष्ठिर पूर्णिमा के चन्‍द्रमा की भाँति शोभा पाते थे। उनके चारों ओर स्‍वर्णदण्‍ड विभूषित चँवर डुलाये जाते थे । भरतश्रेष्‍ठ ! पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को मार्ग में बहुतेरे मनुष्‍य हर्षोल्‍लास में भरकर ‘महाराज की जय हो’ कहते हुए शुभाशीर्वाद देते थे और वे यथोचितरूप से सिर झुकाकर उन सबको स्‍वीकार करते थे। उस मार्ग में दूसरे बहुत-से एकाग्रचित्‍त हो मृगों और पक्षियों-सी आवाज में निरन्‍तर सुखपूर्वक कुरूराज युधिष्ठिर स्‍तुति करते थे। जनमेजय ! इसी प्रकार जो सैनिक राजा युधिष्ठिर पीछे-पीछे जा रहे थे, उनका कोलाहल भी समूचे आकाश मण्‍डल को स्‍तब्‍ध करके गूँज रहा था। हाथी की पीठ पर बैठे हुए बलवान् भीमसेन राजा के आग-आगे जा रहे थे । उनके दोनों ओर सजे-सजाये दो श्रेष्‍ठ अश्‍व थे, जिनपर नकुल और सहदेव बैठे थे । भरतश्रेष्‍ठ ! वे दोनों भाई स्‍वयं तो अपने रूप सौन्‍दर्य से सुशोभित थे ही, उस विशाल सेना की भी शोभा बढ़ा रहे थे। शस्‍त्रधारियों में श्रेष्‍ठ परम बुद्धिमान श्‍वेतवाहन अर्जुन अग्निदेव के दिये हुए रथपर बैठकर गाण्‍डीव धनुष धारण किये महाराज के पीछे-पीछे जा रहे थे। राजन् ! कुरूराज युधिष्ठिर सेना के बीच में चल रहे थे । द्रौपदी आदि स्त्रियों अपनी सेविकाओं तथा आवश्‍यक सामग्रियों के साथ सैकड़ों विचित्र शिबिकाओं (पालकियों) पर आरूढ़ हो बड़ी भारी सेना के साथ महाराज के आगे-आगे जा रही थीं । पाण्‍डवों वह सेना हाथी-घोड़ो तथा पैदल सैनिकों से भरी-पूरी थी । उसमें बहुत-से रथ भी थे, जिसकी ध्‍वजाओं पर पताकाएँ फहरा रही थीं । उन सभी रथों में खडग आदि अस्‍त्र-शस्‍त्र संगृहित थे । सैनिकों का कोलाहल सब ओर फैल रहा था। राजन् ! शंख, दुन्‍दुभि, ताल, वेणु और वीणा आदि वाद्यों की तुमुल ध्‍वनि वहाँ गूँज रही थी । उस समय हस्तिनापुर की ओर जाती हुई पाण्‍डवों की उस सेना की बड़ी शोभा हो रही थी। जनमेजय ! कुरूराज युधिष्ठिर अनेक सरोवर, नदी, वन और उपवनों को लाँघते हुए हस्तिनापुर के समीप जा पहुँचे। वहाँ उन्‍होंने एक सुखद एवं समतल प्रदेश में सैनिकों सहित पड़ाव डाल दिया । उसी छावनी में पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर स्‍वयं भी ठहर गये। राजन् तदनन्‍तर विदुरजी ने शोकाकुल वाणी में महाराज युधिष्ठिर को वहाँ का सारा वृत्तान्‍त ठीक-ठीक बता दिया कि धृतराष्‍ट्र क्‍या करना चाहते हैं और इस द्यूतक्रीडा के पीछे क्‍या रहस्‍य है ? तब धृतराष्‍ट्र द्वारा बुलाये हुए काल के समयानुसार धर्मात्‍मा पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर हस्तिनापुर में पहुँचकर धृतराष्‍ट्र के भवन में गये और उनसे मिले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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