महाभारत सभा पर्व अध्याय 5 श्लोक 113-129
पञ्चम (5) अध्याय: सभा पर्व (लोकपालसभाख्यान पर्व)
नारद जी ने कहा- राजन् ! वेदों की सफलता अग्नि होत्र से होती है, दान और भोग से ही धन सफल होता है, स्त्री का फल है- रति और पुत्र की प्राप्ति तथा शास्त्र ज्ञान का फल है, शील और सदाचार। वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन् ! यह कहकर महातपस्वी नारद मुनि ने धर्मात्मा युधिष्ठिर से पुनः इस प्रकार प्रश्न किया। नारद जी ने पूछा - राजन् ! कर वसूलने का काम करने-वाले तुम्हारे कर्मचारी लोग दूर से लाभ उठाने के लिये आये हुए व्यापारियों से ठीक-ठीक कर वसूल करते हैं न ? (अधिक तो नहीं लेते)? महाराज ! वे व्यापारी लोग आपके नगर और राष्ट्र में सम्मानित हो लिये बिक्री के लिये उपयोगी सामान लाते हैं न ! उन्हें तुम्हारे कर्मचारी छल से ठगते तो नहीं ? तात ! तुम सदा धर्म और अर्थ के ज्ञाता एवं अर्थशास्त्र के पूरे पण्डित बड़े -बढ़े लोगों की धर्म और अर्थ से युक्त बातें सुनते रहते हो न ? क्या तुम्हारे यहाँ खेती से उत्पन्न होने वाले अन्न तथा फल-फूल एवं गौओं से प्राप्त होने वाले दूध, घी आदि में से मधु (अन्न) और घृत आदि धर्म के लिये ब्राह्मणों को जाते हैं ?
नरेश्वर ! क्या तुम सदा नियम से सभी शिल्पियों को व्यवस्थापूर्वक एक साथ इतनी वस्तु-निर्माण की साम्रगी दे देते हो, जो कम-से-कम चौमासे भर चल सके। महाराज ! क्या तुम्हें किसी के किये हुए उपकार का पता चलता है ? क्या तुम उस उपकारी कि प्रशंसा करते हो और साधु पुरूषों से भरी हुई सभा के बीच उस उपकारी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उसका आदर-सत्कार करते हो ? भरत श्रेष्ठ ! क्या तुम संक्षेप से सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले सभी सूत्र ग्रन्थ- हस्तिसूत्र, अश्वसूत्र एवं रथयूत्र आदि संग्रह ( पठन एवं अभ्यास) करते रहते हो ? भरत कुलभूषण ! क्या तुम्हारे घर पर धनुर्वेंद-सूत्र, यन्त्र-सूत्र[१] और नागरिक[२] सूत्र का अच्छी तरह अभ्यास किया जाता है ? निष्पाप नरेश ! तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र (जो मन्त्र बल से प्रयुक्त होते हैं), वेदोक्त दण्ड-विधान तथा शत्रूओं का नाश करने वाले सब प्रकार के विषप्रयोग ज्ञात हैं न ? क्या तुम अग्नि, सर्प, रोग तथा राक्षसों के भय से अपने सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा करते हो ? धर्मज्ञ ! क्या तुम अंधों, गूँगों, पंगुओं अंगहीनों और बन्धु-बान्धवों से रहित अनाथों तथा संन्यासियों का भी पिता की भाँति पालन करते हो ?
महाराज ! क्या तुम ने निद्रा, आलस्य, भय, क्रोध, कठोरता और दीर्घसूत्रता- इन छः दोषों पीछे कर दिया (त्याग दिया ) है ?
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! कुरूश्रेष्ठ महात्मा राजा युधिष्ठिर ने ब्रह्मा के पुत्रों में श्रेष्ठ नारद जी का यह वचन सुनकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम एवं अभिमान किया और अत्यन्त संतुष्ट हो देव स्वरूप् नारद जी से कहा। युधिष्ठिर बोले- देवर्षें ! आपने जैसा उपदेश दिया है, वैसा ही करूँगा । आप के इस प्रवचन से मेरी प्रज्ञा और भी बढ़ गयी है। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर ने वैसा ही आचरण किया और इसी से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का राज्य पा लिया। नारद जी ने कहा- जो राजा इस प्रकार चारों वर्णों ( और वर्णाश्रमधर्म) की रक्षा में संलग्न रहता है, वह इस लोक में अत्यन्त सुख पूर्वक विहार करके अन्त में देवराज इन्द्र के लोक में जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लोहे की बनी हुई उन मशीनों को, जिनके द्वारा बारूद के बल से शीशे, काँसे और पत्थर की गोलियाँ चलायी जाती हैं-यन्त्र कहतें हैं । उन यन्त्रों के प्रयोग की विधि के प्रतिपादक संक्षित वाक्य ही यन्त्रसूत्र हैं।
- ↑ नगर की रक्षा तथा उन्नति के साधनों को बताने वाले संक्षिप्त वाक्यों को ही यहाँ नागरिक सूत्र कहा गया है ।