महाभारत सभा पर्व अध्याय 62 श्लोक 1-13
द्विषष्टितम (62) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
धृतराष्ट्र विदुर की चेतावनी
वैशम्पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! इस प्रकार जय सर्वस्व का अपहरण करने वाली वह भयानक द्यूतक्रीडा चल रही थी, उसी समय समस्त संशयों का निवारण करने वाले विदुरजी बोल उठे। विदुरजी ने कहा —भरत कुलतिलक महाराज धृतराष्ट्र ! मरणासन्न रोगी को जैसे ओषधि अच्छी नहीं लगती, उसी प्रकार आप लोगों को मेरी शास्त्रसम्मत बात भी अच्छी नहीं लगेगी । फिर भी मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अच्छी तरह सुनिये और समझिये। यह भरतवंश का विनाश करने वाला पापी दुर्योधन पहले जब गर्भ से बाहर निकला था, गीदड़ के समान जोर-जोर से चिल्लाने लगा था; अत: यह निश्चय ही आप सब लोगों के विनाश कारण बनेगा। राजन् ! दुर्योधन के रूप में आपके घर के भीतर एक गीदड़ निवास कर रहा है; परंतु आप मोहवश इस बात को समझ नहीं पाते । सुनिये, मैं आपको शुक्राचार्य की कही हुई नीति की बात बतलाता हूँ। मधु बेचनेवाला मनुष्य जब कहीं ऊँचे वृक्ष आदि पर मधु का छत्ता देख लेता ह, तब वहाँ से गिरने की सम्भावना की ओर ध्यान नहीं देता । वह ऊँचे स्थान पर चढ़कर या तो मधु पाकर मग्न हो जाता है अथवा उस स्थान से नीचे गिर जाता है। वैसे ही यह दुर्योधन जूए के नशे में इतना उन्मत्त हो गया है कि मधुमत्त पुरूष की भाँति अपने ऊपर आने वाले संकट को नहीं देखता । महारथी पाण्डवों के साथ वैर करके हमें पतन के गर्त में गिरकर मरना पड़ेगा, इस बात को समझ नहीं पा रहा है। महाप्राज्ञ ! मुझे मालूम है कि भोजवंश के एक नरेश ने पूर्वकाल में पुरवासियों के हित की इच्छा से अपने कुमार्गगामी पुत्र का परित्याग कर दिया था।अन्धकों, यादवों और भोजों ने मिलकर कंस को त्याग दिया तथा उन्हीं के आदेश से शत्रुघाती श्रीकृष्ण ने उसको मार डाला। इस प्रकार उसके मारे जाने से समस्त बन्धु-बान्धव सदा के लिये सुखी हो गये हैं । आप भी आज्ञा दें तो ये सव्यसाची अर्जुन इस दुर्योधन को बंदी बना ले सकते हैं। इसी पापी के कैद हो जाने से समस्त कौरव सुख और आनन्द से रह सकते हैं । राजन् ! दुर्योधन कौवा है और पाण्डव मोर । इस कौवे को देकर आप विचित्र पंख वाले मयूरों को खरीद लीजिये । इस गीदड़ के द्वारा इन पाण्डवरूपी शेरों को अपनाइये । शोक के समुद्र में डूबकर प्राण न दीजिये। समूचे कुल की भलाई के लिये एक मनुष्य को त्याग दे, गाँव के हित के लिये एक कुल को छोड़ दे, देश की भलाई के लिये एक गाँव को त्याग दे और आत्मा के उद्धार के लिये सारी पृथ्वी का ही परित्याग कर दे। सबके मनोभावों को जानने वाले तथा सब शत्रुओं के लिये भयंकर सर्वज्ञ शुक्राचार्य ने जम्भ दैत्य को त्याग करने के समय समस्त बडे़-बड़े असुरों से यह कथा सुनायी थी। एक वन में कुछ पक्षी रहते थे, जो अपने मुख से सोना उगला करते थे । एक दिन जब वे अपने घोंसलों में आराम से बैठे थे, उस देश के राजा ने उन्हें लोभवश मरवा डाला । शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश ! उस राजा को एक साथ बहुता-सा सुवर्ण पा लेने की इच्छा थी । उपभोग- के लोभ ने उसे अंधा बना दिया था।
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