महाभारत सभा पर्व अध्याय 67 श्लोक 30-42
सप्तषष्टितम (67) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
जो केश राजसूर्य महायज्ञ के अवभृथस्थान में मन्त्रपूत जल से सींचे गये थे, उन्हीं को दु:शासन ने पाण्डवों के पराक्रम की अवहेलना करके बलात्कार पूर्वक पकड़ लिया। लम्बे-लम्बे केशोंवाली वह द्रौपदी यद्यपि सनाथा थी, तो भी दु:शासन उस बेचारी आर्त अबला को अनाथ की भाँति घसीटता हुआ सभा के समीप ले आया और जैसे वायु केले के वृक्ष को झकझोरकर झुका देता है, उसी प्रकार वह द्रौपदी को बलपूर्वक खींचने लगा। दु:शासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया । उसने धीरे से कहा— मन्दबुद्धि दुषृत्मा दु:शासन ! मैं रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है । इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है’। यह सुनकर दु:शासन उसके काले-काले केशों को और जोर से पकड़कर कुछ बकने लगा; इधर यज्ञ सेन कुमारी कृष्णा ने अपनी रक्षा के लिये सर्वपापहारी, सर्वविजयी, नरस्वरूप भगवान श्री कृष्ण को पुकारने लगी। दु:शासन बोला—द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जूए में जीता है; अत: तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिये अब तुझे हमारी इच्छा अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा। वैशम्पायनजी कहते हैं —जनमेजय !उस समय द्रौपदी के केश बिखर गये थे । दु:शासन झकझोर ने से उसका आधा वस्त्र भी खिसकर गिर गया था । वह लाज से गड़ी जाती थी और भीतर-ही-भीतर क्रोध से दग्ध हो रही थी । उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली । द्रौपदी ने कहा—अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रों क विद्वान्, कर्मठ और इन्द्र के समान तेजस्वी मेरे पिता के समान सभी गुरूजन बैठे हुए हैं । मैं उनके सामने इस रूप में खड़ी होना नहीं चाहती। क्रूरकर्मा दुराचारी दु:शासन ! तू इस प्रकार मुझे ने खींच, न खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर । इन्द्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिये आ जायँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पाण्डव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे। धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर धर्म में ही स्थित हैं । धर्म का स्वरूप बड़ा सूक्ष्म है । बुद्धिवाले धर्मपालन में निपुण महापुरूष ही उसे समझ सकते हैं । मैं अपने पति के गुणों को छोड़कर बाणीद्वारा उनके परमाणुतुल्य छोटे-से छोटे दोष को भी कहना नहीं चाहती। अरे ! तू इन कौरववीरों के बीच में मुझे रजस्वला स्त्री को खींचकर लिये जा रहा है, यह अत्यन्त पाप पूर्ण कृत्य है । मैं देखती हूँ यहाँ कोई भी मनुष्य तेरे इस कुकर्म की निन्दा नहीं कर रहा है । निश्चय ही ये सब लोग तेरे मत में हो गये। अहो ! धिक्कार है ! भरतवंश के नरेशों का धर्म निश्चय ही नष्ट हो गया तथा क्षत्रियधर्म के जानने वाले इन महापुरूषों का सदाचार भी लुप्त हो गया; क्योंकि यहाँ कौरवों की धर्ममर्यादा-का उल्लंघन हो रहा है, तो भी सभा में बैठे हुए सभी कुरूवंशी चुपचाप देख रहे हैं। जान पड़ता है द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, महात्मा विदुर तथा राजा धृतराष्ट्र में अब कोई शक्ति नहीं रह गयी है; तभी तो ये कुरूवंश के बडे़-बडे़ महापुरूष राजा दुर्योधन के इस भयानक पापा चार की ओर दष्टिपात नहीं कर रहे हैं। मेरे इस प्रश्न का सभी सभा सद् उत्तर दें । राजाओ ! आप-लोग क्या समझते हैं ? धर्म के अनुसार मैं जीती गयी हूँ था नहीं। वैशम्पायनजी कहते हैं —जनमेजय ! इस प्रकार करूण स्वर में विलाप करती सुमध्यमा द्रौपदी ने क्रोध में भरे हुए अपने पतियों की ओर तिरछी दृष्टि से देखा । पाण्डवों के अंग-अंग में क्रोध की अग्नि व्याप्त हो गयी थी । द्रौपदी ने अपने कटाक्ष द्वारा देखकर उनकी क्रोधाग्नि को और भी उदीप्त कर दिया।
« पीछे | आगे » |