महाभारत सभा पर्व अध्याय 68 श्लोक 67-83
अष्टषष्टितम (68) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
दोनों ही उस कन्या को पाने की इच्छा से ‘मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं श्रेष्ठ हूँ’ ऐसा कहने लगे । मेरे सुनने में आया है कि उन दोनों ने अपनी बात सत्य करने के लिये प्राणों की बाजी लगा दी। श्रेष्ठता के प्रश्न को लेकर जब उनका विवाद बहुत बढ़ गया, तब उन्होंने दैत्यराज प्रहलाद से जाकर पूछा—‘हम दोनों में कौन श्रेष्ठ है ? आप इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर दीजिये, झूठ न बोलियेगा’। प्रहलाद उस विवाद से भयभीत हो सुघन्वा की ओर देखने लगे, तब सुघ्नवा ने प्रज्वलित ब्रह्मदण्ड के समान कुपित होकर कह —‘ प्रहलाद ! यदि तुम इस प्रश्न के उत्तर में झूठ बोलोगे अथवा मौन रहे जाओगे, तो वज्रधारी इन्द्र अपने वज्रद्वारा तुम्हारे सिर के सैकड़ों टुकडे़ कर देगा’। सुघन्वा के ऐसा कहने पर प्रहलाद व्यथित हो पीपल के पत्ते की तरह काँपने लगे और इसके विषय में कुछ पूछने के लिये वे महातेजस्वी कश्यपजी के पास गये। प्रहलाद बोले—महाभाग ! आप देवताओ, असुरों तथा ब्राह्माण के भी धर्म को जानते हैं । मुझपर एक धर्म संकट उपस्थित हुआ हे, उसे सुनिये। मैं पूछता हूँ कि जो प्रश्न का उत्तर ही न दे अथवा असत्य उत्तर दे दे, उसे परलोक में कौन से लोक प्राप्त होते हैं ? यह मुझे बताइये। कश्यपजी ने कहा—जो जानते हुए भी काम, क्रोध तथा भय से प्रश्नों का उत्तर नहीं देता, वह अपने ऊँपर वरूण देवता के सहस्त्रों पाश डाल लेता है ।जो गवाह गाय-बैल के ढीले-ढाले कानों की तरह शिथिल हो दोनों पक्षों से सम्बन्ध बनये रखकर गवाही नहीं देता, वह भी अपने को वरूण देवता के सहस्त्रों पाशों से बाँध लेता है। एक वर्ष पूरा होने पर उसका एक पाश खुलता है, अत: सच्ची बात जानने वाले पुरूष को यथार्थरूप से सत्य ही बोलना चाहिये। जहाँ धर्म अधर्म से विद्ध होकर सभा में उपस्थित होता है, उसके काँटे को उससे बिंधे हुए सभासद् लोग नहीं काट पाते (अर्थात् उनको पाप का फल भोगना ही पड़ता है) । सभा में जो अधर्म होता है, उसका आधा भाग स्वयं सभापति ले लेता है, एक चौथाई भाग करने वालों को मिलता है और एक चतुर्थोश उन सभासदों को प्राप्त होता है जो निन्दनीय पुरूष की निन्दा नहीं करते । जिस सभा में निन्दा के योग्य मनुष्य की निन्दा की जाती है, वहाँ सभापति निष्पाप हो जाता है, सभासद् भी पाप से मुक्त हो जाते हैं और साग पाप करने वाले को ही लगता है । प्रहलाद ! जो लोग धर्म विषयक प्रश्न पूछने वाले को झूठा उत्तर देते हैं, वे अपने इष्टृापूर्त धर्म का नाश तो करते ही हैं आगे पीछे की सात-सात पीढि़यों के भी पुण्यों का वे हनन करते हैं। जिसका सर्वस्व छीन लिया गया हो उसे जो दु:ख होता है, जिसका पुत्र मर गया हो, उसे जो शोक होता है, ऋणग्रस्त और स्वार्थ से वंचित मनुष्य को जो क्लेश होता है, पति से विहीन होने पर स्त्री को तथा राजा कोपभाजन मनुष्य को जो कष्ट उठाना पड़ता है, पुत्रहीना नारी को जो संताप होता है, शेर के चंगुल में फँसे हुए प्राणी को जो व्याकुलता होती है, सौतवाली स्त्री को जो दु:ख होता है, साक्षियों ने जिसे धोखा दिया हो, उस मनुष्य को जो महान् क्लेश होता है- इन सभी प्रकार के दु:खों-को देवताओं ने समान बतलाय है।
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