महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 4
चतु:सप्ततितम (74) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
मेरा हृदय अर्जुन से इतना भयभीत हो गया है कि अश्व, अर्थ और अज आदि अकारादि नाम मेरे मन में त्रास उत्पन्न कर देते हैं। तात ! अर्जुन के सिवा शत्रुपक्ष के दूसरे किसी वीर से मुझे डर नहीं लगता है । महाराज ! मेरा विश्वास है कि अर्जुन युद्ध में प्रहलाद अथवा बलि को भी मार सकते है; अत: उनके साथ किया हुआ युद्ध हमारे सैनिकों को ही संहार का कारण होगा । मैं अर्जुन के प्रभाव को जानता हूँ । इसीलिये सदा दु:ख के भार से दबा रहता हैूँ। जैसे पूर्वकाल में दण्ड कारण्यवासी महापराक्रमी श्रीरामचन्द्र-जी से मारीच को भय हो गया था, उसी प्रकार अर्जुन से मुझे भय हो रहा है। धृतराष्ट्र बोले—बेटा ! अर्जुन के महान् पराक्रम को तो मैं जानता ही हूँ । इस पराक्रम का सामना करना अत्यन्त कठिन है । अत: तुम वीर अर्जुन का कोई अपराध न करो । उनके साथ द्यूतक्रीड़ा, शस्त्रयुद्ध अथवा कटु वचन का प्रयोग कभी न करो; क्योंकि इन्हीं के कारण उनका तुम लोगों के साथ विवाद हो सकता है । अत: बेटा ! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो । भारत ! जो मनुष्य इस पृथ्वी पर अर्जुन के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध रखते हुए उनसे सद्व्यवहार करता है, उसे तीनों लोकों में तनिक भी भय नहीं है; अत: वत्स ! तुम अर्जुन के साथ सदा स्नहेपूर्ण बर्ताव करो। दुयोधन बोला—कुरूश्रेष्ठ ! जूए में हम लागों ने अर्जुन के प्रति छल-कपट का बर्ताव किया था, अत: आप किसी दूसरे उपाय से उन्हें मार डालें । इसी से हम लोगों का सदा भला होगा। धृतराष्ट्रने कहा—भारत ! पाण्डवों के प्रति किसी अनुचित उपाय का प्रयोग नहीं करना चाहिये । बेटा ! तुमने उन सबको मारने के लिये पहले बहुत- से उपाये किये हैं । कुन्ती के पुत्र तुम्हारे उन सभी प्रयत्नों का उल्लंघन करके बहुत बार आगे बढ़ गये हैं; अत: वत्स ! यदि तुम अपने कुल और आत्मीय-जनों की जीवनरक्षा के लिये किसी हितकर उपाय का अवलम्बन करना चाहते हो तो मित्र, बन्धु-बान्धव तथा भाइयों सहित तुम अर्जुन के साथ सदा स्नेहपूर्ण बर्ताव करो वैशम्पायनजी कहते हैं—धृतराष्ट्र की यह बात सुनकर राजा दुर्योधन दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करके विधाता से प्रेरित हो इस प्रकार बोला दुर्योधन बोला— राजन् ! देवगुरू विद्वान् बृहस्पतिजी ने इन्द्र को नीति का उपदेश करते हुए जो बात नही है, उसे शायद आपने नहीं सुना है। शत्रुसूदन ! जो आपका अहित करते हैं, उन शत्रुओं को बिना युद्ध के अथवा युद्ध करके—सभी उपायों से मार डालना चाहिये। महाराज ! यदि हम पाण्डवों के धन से सब राजाओं का सत्कार करके उन्हें साथ ले पाण्डवों युद्ध करें, तो हमारा क्या बिगड़ जायेगा ? क्रोध में भरकर काटने के लिये उद्यत हुए विषधर सर्पों को अपने गले में लटकाकर अथवा पीठ पर चढ़ाकर कौन मनुष्य उन्हें उसी अवस्था में छोड़ सकता है ? तात ! अस्त्र-शस्त्रों को लेकर रथ में बैठे हुए पाण्डव कुपित होकर क्रुद्ध विषधर सर्पों की भाँति आप के कुल का संहार कर डालेंगे। हमने सुना है, अर्जुन कवच धारण करके दो उत्तम तूणीर पीठ पर लटकाये हुए जाते हैं । वे बार-बार गाण्डीव धनुष हाथ में लेते हैं और लम्बी साँसें खींचकर इधर-उधर देखते हैं । इसी प्रकार भीमसेन शीघ्र ही अपना रथ जोतकर भारी गदा उठाये बड़ी उतावली के साथ यहाँ से निकलकर गये हैं।
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