महाभारत सभा पर्व अध्याय 79 भाग-3
एकोनाशीतितम (79) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
विदुरजी शोकाकुल कुन्ती को अनेक प्रकार की युक्तियों-द्वारा धीरज बँधाकर उन्हें धीरे-धीरे अपने घर ले गये । उस समय वे स्वयं भी बहुत दुखी थे। तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर जब वन की ओर प्रस्थित हुए, तब उस नगर के समस्त निवासी दु:ख से आतुर हो उन्हें देखने के लिये महलों, मकान की छतों, समस्त गोपुरों और वृक्षों पर चढ़ गये । वहाँ से सब लोग उदास होकर उन्हें देखने लगे। उस समय सड़कें मनुष्यों की भारी भीड़ से इतनी भर गयी थीं कि उन पर चलना असम्भव हो गया था । इसीलिये लोग ऊँचें चढ़-कर अत्यन्त दीनभाव से पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को देख रहे थे ॥ कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर छत्र रहित एवं पैदल ही चल रहे थे । शरीर पर राजोचित वस्त्रों और आभूषणों का भी अभाव था । वे वल्कल और मृगचर्म पहने हुए थे । उन्हें इस दशा में देखकर लोगों के हृदय में गहरी चोट पहुँची और वे सब लोग नाना प्रकार की बातें करने लगे ॥ नगर निवासी मनुष्य बोले—अहो ! यात्रा करते समय जिनके पीछे विशाल चतुरंगिणी सेना चलती थी, आज वे ही राजा युधिष्ठिर इस प्रकार जा रहे हैं और उनके पीछे द्रौपदी के साथ केवल चार भाई पाण्डव तथा पुरोहित चल रहे हैं। जिसे आज से पहले आकाशचारी प्राणी तक नहीं देख पाते थे, उसी द्रुपद कुमारी कृष्णों को अब सड़क पर चलने वाले साधारण लोग भी देख रहे हैं। सुकुमारी द्रौपदी के अंगों में दिव्य अंगराग शोभा पाता था । वह लाल चन्दन का सेवन करती थी, परंतु अब वन में सदीं, गमीं ओर वर्षा लगने से उसकी अंग कान्ति शीघ्र ही फीकी पड़ जाएगी। निश्चय ही आज कुन्तीदेवी बडे़ भारी धैर्य का आश्रय लेकर अपने पुत्रों और पुत्रवधू से वार्तालाप करती हैं; अन्यथा इस दशा में वे इनकी ओर देख भी नहीं सकतीं ॥ गुणहीन पुत्र का भी दु:ख माता से कैसे देखा जायेगा; फिर जिस पुत्र के सदाचार मात्र से यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उस पर कोई दु:ख आये, तो उसकी माता वह कैसे देख सकती है ? पुरूष रत्न पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को कोमलता, दया, धैर्य, शील, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह—ये छ: सद्रुण सुशोभित करते हैं । उनकी हानि से आज सारी प्रजा को बड़ी पीड़ा हो रही है ॥ जैसे गमीं में जलाशय का पानी घट जाने से जलचर जीव-जन्तु व्यथित हो उठते हैं एवं जड़ कट जाने से फल और फूलों से युक्त वृक्ष सूखने लगता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् के पालक महाराज युधिष्ठिर की पीड़ा से सारा संसार पीडित हो गया है। महातेजस्वी धर्मराज युधिष्ठिर मनुष्यों के मूल हैं । जगत् के दूसरे लोग उन्हीं की शाखा, पत्र, पुण्य और फल हैं । आज इस अपने पुत्रों और भाई-बन्धुओं को साथ लेकर चारों भाई पाण्डवों की भाँति शीघ्र उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे चलें, जिससे पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर जा रहे हैं ॥ आज हम अपने श्वेत, बाग-बगीचे और घर-द्वार छोड़कर परम धर्मात्मा कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर के साथ चल दें और उन्हीं के सुख-दु:ख को अपना सुख-दु:ख समझें ॥ हम अपने घरों की गड़ी हुई निधि निकाल लें । आँगन की फर्श खोद डालें। धन-धान्य साथ ले लें । सारी आवश्यक वस्तुएँ हटा लें । इनमें चारों ओर धूल भर जाय । देवता इन घरों को छोड़कर भाग जायँ । चूहे बिल से बाहर निकलकर इनमें चारों ओर दोड़ लगाने लगें । इनमें न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाडू ही लगे । यहाँ बलि दैश्व देव, यज्ञ, मन्त्र पाठ, होम और जप बंद हो जाय ।
« पीछे | आगे » |