महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-20
द्वाद्वश (12) अध्याय: सौप्तिक पर्व
श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा की चपलता एवं क्रुरता के प्रसंग में सुदर्शन चक्र माँगने की बात सुनाते हुए उससे भीमसेन की रक्षा के लिये प्रयत्न करने का आदेश देना वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! दुर्धर्ष वीर भीमसैन के चले जाने पर यदुकुलतिलक कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से कहा- । पाण्डुनन्दन ! ये आपके भाई भीमसेन पुत्रशोक में मग्न होकर युद्ध में द्रोणकुमार के वध की इच्छा से अकेले ही उस पर धावा कर रहे है । भरतश्रेष्ठ ! भीमसेन आपको समस्त भाइयों से अधिक प्रिय है, किंतु आज से संकट में पड़ गये है । फिर आप उनकी सहायता के लिये जाते ही क्यों नहीं है। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र को जिस ब्रह्मशिर नामक अस्त्र का उपदेश दिया है, वह समस्त भूमण्डल को भी दुग्ध कर सकता है । सम्पूर्ण धनुर्धरों के सिरमौर महाभाग महात्मा द्रोणाचार्य ने प्रसन्न होकर वह अस्त्र पहले अर्जुन को दिया था । अश्वत्थामा इसे सहन न कर सका । वह उनका एकलौता पुत्र था, अतः उसने भी अपने पिता से उसी अस्त्र के लिये प्रार्थना की । तब आचार्य ने अपने पुत्र को उस अस्त्र का उपदेश कर दिया, किंतु इससे उनका मन अधिक प्रसन्न नहीं था । उन्हें अपने दुरात्मा पुत्र की चपलता ज्ञात थी, अतः सब धर्मों के ज्ञाता आचार्य ने अपने पुत्र को इस प्रकार शिक्षा दी । बेटा ! बड़ी से बडी आपत्ति में पड़ने पर भी तुम्हें रणभूमि में विशेषतः मनुष्यों पर इस अस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिये । नरश्रेष्ठ ! अपने पुत्र से ऐसा कहकर गुरू द्रोण पुनः उससे बोले- बेटा ! मुझे संदेह है कि तुम कभी सत्पुरूषों के मार्ग पर स्थिर नहीं रहेागे । पिता के इस अप्रिय वचन को सुन और समझकर दुष्टात्मा द्रोणपुत्र सब प्रकार के कल्याण की आशा छोड़ बैठा और बडे़ शोक से पृथ्वी पर विचरने लगा । भरतनन्दन ! कुरूश्रेष्ठ ! तदनन्तर जब तुम वन में रहते थे, उन्हीं दिनों अश्वत्थामा द्वारका में आकर रहने लगा । वहां वृष्णिवंशियों ने उसका बड़ा सत्कार किया । एक दिन द्वारका में समुद्र के तट पर रहते समय उसने अकेले ही मुझ अकेले के पास आकर हंसते हुए से कहा- ।। दर्शार्हनन्दन ! श्रीकृष्ण ! भरतवंश के आचार्य मेरे सत्यपराक्रमी पिता ने उस तपस्या करके महर्षि अगस्तय से जो ब्रह्मस्त्र प्राप्त किया था, वह देवताओं और गन्धर्वों द्वारा सम्मानित अस्त्र इस समय जैसा मेरे पिता के पास है, वैसा ही मेरे पास भी है, अतः यदुश्रेष्ठ ! मुझसे वह दिव्य अस्त्र लेकर रणभूमि में शत्रुओं का नाश करने वाला अपना चक्रनामक अस्त्र मुझे दे दीजिये । भरतश्रेष्ठ ! वह हाथ जोड़कर बडे़ प्रयत्न के द्वारा मुझसे अस़्त्र की याचना कर रहा था, तब मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक ही उससे कहा- । ब्रह्मन् ! देवता, दानव, गन्धर्व, मनुष्य, पक्षी और नाग ये सब मिलकर मेरे पराक्रम के सौवे अंश की भी समानता नहीं कर सकते। यह मेरा धनुष है, यह शक्ति है, यह चक्र है और यह गदा है । तुम जो जो अस्त्र मुझसे लेना चाहते हो, वही वह तुम्हें दिये देता हूं। । तुम मुझे जो अस्त्र देना चाहते हो, उसे दिये बिना ही रणभूमि में मेरे जिस आयुध को उठा अथवा चला सको, उसे ही ले लो । तब उस महाभाग ने मेरे साथ स्पर्धा रखते हुए मुझसे मेरा वह लोहमय चक्र मांगा, जिसकी सुन्दर नाभि में वज्र लगा हुआ है तथा जो एक सहस्र अरोसे सुशोमित होता है ! ।
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