महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 20-37
षोडश (16) अध्याय: सौप्तिक पर्व
वैशम्पायनजी कहते हैं–राजन् ! इसके बाद महात्मा पाण्डवों को मणि देकर द्रोणकुमार अश्वत्थामा उदास मन से उन सबके देखते–देखते वन में चला गया। इधर जिनके शत्रु मारे गये थे, वे पाण्डव भी भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा महामुनि नारदजी को आगे करके द्रोणपुत्र के साथ ही उत्पन्न हुई मणि लिये आमरण अनशन का निश्र्चय किये बैठी हुई मनस्विनी द्रौपदी के पास पहुँचने के लिये शीघ्रतापूर्वक चले। वैशम्पायनजी कहते हैं–राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण सहित वे पुरुषसिंह पाण्डव वहाँ से वायु– के समान वेगशाली उत्तम घोड़ों द्वारा पुन: अपने शिविर में आ पहुँचे। वहाँ रथों से उतरकर वे महारथी वीर बड़ी उतावली के साथ आकर शोक पीड़ित द्रुपदकुमारी कृष्णा से मिले । वे स्वयं भी शोक से अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे। दु:ख शोक में डूबी हुई आनन्दशून्य दौपदी के पास पहुँचकर श्रीकृष्ण सहित पाण्डव उसे चारों ओर से घेरकर बैठ गये। तब राजा की आज्ञा पाकर महाबली भीमसेन ने वह दिव्य मणि द्रौपदी के हाथ में दे दी और इस प्रकार कहा–‘भद्रे ! यह तुम्हारे पुत्रों का वध करने वाले अश्र्वत्थामा की मणि है । तुम्हारे उस शत्रु को हमने जीत लिया । अब शोक छोड़कर उठो और क्षत्रिय–धर्म का स्मरण करो।
‘कजरारे नेत्रों वाली भोली–भाली कृष्णे ! जब मधुसूदन श्रीकृष्ण कौरवों के पास संधि कराने के लिये जा रहे थे, उस समय तुमने इनसे जो बातें कही थी, उन्हें याद तो करो। ‘जब राजा युधिष्ठिर शान्तिक के लिये संधिक कर लेना चाहते थे,उस समय तुमने पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण से बड़े कठोर वचन कहे थे– ‘गोविन्द ! (मेरे अपमान को भुलाकर शत्रुओं के साथ संधि की जा रही हैं, इसलिये मैं समझती हूँ कि) न मेरे पति हैं, न पुत्र हैं, न भाई हैं और न तुम्ही हो’ । क्षत्रिय–धर्म के अनुसार कहे गये उन वचनों को तुम्हें आज स्मरण करना चाहिये।
‘हमारे राज्य का लुटेरा पापी दुर्योधन भाग गया और छटपटाते हुए दु:शासन का रक्त भी मैंने पी लिया । वैर का भरपूर बदला चुका लिया गया । अब कुछ कहने की इच्छा वाले लोग हम लोगों की निन्दा नहीं कर सकते । हमने द्रोणपुत्र अश्र्वत्थामा को जीतकर केवल ब्राह्मण और गुरुपुत्र होने के कारण ही उसे जीवित छोड़ दिया है।
‘देवि ! उसका सारा यश धूल में मिल गया । केवल शरीर शेष रह गया है । उसकी मणि भी छीन ली गयी और उससे पृथ्वी पर हथियार डलवा दिया गया है’। दौपदी बोली–भरतनन्दन ! गुरुपुत्र तो मेरे लिये भी गुरु के ही समान हैं । मैं तो केवल पुत्रों के वध का प्रतिशोध लेना चाहती थी, वह पा गयी अब महाराज इस मणि को अपने मस्तक पर धारण करें। तब राजा युधिष्ठिर ने वह मणि लेकर द्रौपदी के कथनानुसार उसे अपने मस्तक पर ही धारण कर लिया । उन्होंने उस मणि को गुरु का प्रसाद ही समझा। उस दिव्य एवं उत्तम मणि को मस्तक पर धारण करके शक्तिशाली राजा युधिष्ठिर चन्द्रोदय की शोभा से युक्त उदयाचल के समान सुशोभित हुए। तब पुत्रशोक से पिड़ित हुई मनस्विनी कृष्णा अनशन छोड़कर उठ गयी और महाबाहु धर्मराज ने भगवान् श्रीकृष्ण से एक बात पूछी।
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