महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 17-26
सप्तदश (17) अध्याय: सौप्तिक पर्व
अब प्रजा प्रजापति को अपना आहार बनाने के लिये उद्यत हुई, तब वे आत्मरक्षाके लियेबड़े वेग से भागकर पितामह ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए और बोले–‘भगवन् ! आप मुझे इन प्रजाओं से बचाइये और इनके लिये कोई जीविकावृत्ति नियम कर दिजिये”। तब ब्रह्मा जी ने उन प्रजाओंको अन्न और औषधि आदि स्थावर वस्तुएँ जीवन–निर्वाह के लिये दी और अत्यन्त बलवान् हिंसक जन्तुओं के लिये दुर्बल जंड्रगम प्राणियों को ही आहार निश्चित कर दिया। जिनकी सृष्टि हुई थी, उनकेलियेजब भेजनकी व्यवस्थ्ज्ञा कर दी गयी, तब वे प्रजा वर्ग के लोग जैसे आये थे, वैसे लौट गये । राजन् ! तदनन्तर सारी प्रजा अपनी ही योनियों में प्रसन्नतापूर्वक रहती हुई उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। जब प्राणिसमुदाय की भली भाँति वृद्धि हो गयी और लोक गुरु ब्रह्मा भी संतुष्ट हो गये, तब वे ज्येष्ठ पुरुष शिव जल से बाहर निकले । निकलने पर उन्होंने इन समस्त प्रजाओं को देखा। अनेक रुपवाली प्रजा की सृष्टि हो गयी और वह अपने ही तेज से भली–भाँति बढ़ भी गयी ।
यह देखकर भगवान् रुद्र कुपित हो उठे और उन्होंने अपना लिंग्ड काट कर फेंक दिया। इस प्रकार भूमि पर डाला गया वह लिंग उसी रुप में प्रतिष्ठित हो गया । तब अविनाशी ब्रह्मा ने अपने वचनों द्वारा उन्हें शान्त करते हुए–से कहा। ‘रुद्रदेव ! आपने दीर्घकाल तक जल में स्थित रहकर कौनसा कार्य किया है? और इस लिंग को उत्पन्न करके किस लिये पृथ्वी पर डाल दिया है?’
यह प्रश्न सुनकर कुपित हुए जगद्गुरु शिवने ब्रह्मा जी से कहा–‘प्रजाकी सृष्टि तो दूसरे ने कर डाली; फिर इस लिंग को रखकर मैं क्या करुँगा। ‘पितामह ! मैंने जल में तपस्या करके प्रजा के लिये अन्न प्राप्त कियाहै; ये अन्न रुप औषधियाँ प्रजाओं के ही समान निरन्तर विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होती रहेंगी। ऐसा कहकरक्रोध में भरे हुए महातपस्वी महादेव जी उदास मन से मुञ्जवान् पर्वत की घाटी पर तपस्या करने के लिये चले गये।
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