महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 4 श्लोक 18-34
चतुर्थ (4) अध्याय: सौप्तिक पर्व
तात ! समरांगण में मैं और कृतवर्मा पाण्डवों को परास्त किये बिना कभी पीछे नहीं हटेंगे ।समरांगण में कुपित हुए पांचालों को पाण्डवों सहित मार कर ही हम सब लोग पीछे हटेंगे अथवा स्वयं ही मारे जाकर स्वर्गलोक की राह लेंगे । निष्पाप महाबाहु वीर ! कल प्रात:काल हम लोग सभी उपायों से युद्ध में तुम्हारे सहायक होंगे ।। मैं तुमसे यह सच्ची बात कह रहा हूँ । राजन ! मामा के इस प्रकार हितकारक वचन कहने पर द्रोणकुमार अश्वत्थामा ने क्रोध से लाल आंखें करके उनसे कहा- । मामाजी ! जो मनुष्य शोक से आतुर हो, अमर्ष से भरा हुआ हो, नाना प्रकार के कार्यों की चिन्ता कर रहा हो अथवा किसी कामना में आसक्त हो, उसे नींद कैसे आ सकती है ? देखिये, ये चारों बातें आज मेरे ऊपर एक साथ आ पड़ी हैं । इन चारों का एक चौथाई भाग जो क्रोध है, वही मेरी निद्रा को तत्काल नष्ट किये देता है। अपने पिता के वध की घटना का बारंबार स्मरण करके इस संसार में कौन-सा ऐसा दु:ख है जिसका मुझे अनुभव न होता हो। वह दुख की आग रात-दिन मेरे हृदय को जलाती हुई अब तक बुझ नहीं पा रही है । इन पापियों ने विशेषत; मेरे पिताजी को जिस प्रकार मारा था, वह सब आपने प्रत्यक्ष देखा है। वहा घटना मेरे मर्म स्थानों को छेद डालती है। ऐसी अवस्था में मेरे-जैसा वीर इस जगत में देा घड़ी भी कैसे जीवित रह सकता है ? । द्रोणाचार्य धृष्टधुम्न के हाथ से मारे गये यह बात जब मैं पांचालों के मुख से सुनता आ रहा हूँ, तब धृष्टधुम्न का वध किये बिना जीवित नहीं रह सकता । धृष्टधुम्न तो पिताजी का वध करने के कारण मेरा वध्य होगा और उसके संगी-साथी जो पांचाल हैं, वे भी उसका साथ देने के कारण मारे जायेंगे। इधर, जिसकी जांघे तोड़ डाली गयी हैं, उस राजा दुर्योधन का जो विलाप मैंने अपने कानों सुना है, वह किस क्रूर मनुष्य के भी हृदय को शोक-दग्ध नहीं कर देगा ? । टूटी जांघ वाले राजा दुर्योधन की वैसी बात पुन: सुनकर किस निष्ठुर के भी नेत्रों से आंसू नहीं बह चलेगा ? । मेरे जीते-जी जो यह मेरा मित्र-पक्ष परास्त हो गया, वह मेरे शोक की उसी प्रकार वृद्धि कर रहा है, जैसे जल का वेग समुद्र को बढा देता है। आज मेरा मन एक ही कार्य की ओर लगा हुआ है, फिर मुझे नींद कैसे आ सकती है और मुझे सुख भी कैसे मिल सकता है । सत्पुरूषों में श्रेष्ठ मामाजी ! पाण्डव और पांचाल जब श्रीकृष्ण और अर्जुन से सुरक्षित हो, उस दशा में मैं उन्हें देवराज इन्द्र के लिये भी अतयंत असहाय एवं अजेय मानता हूँ । इस समय जो क्रोध उत्पन्न हुआ है, इसे मैं स्वयं भी रोक नहीं सकता। इस संसार में किसी भी ऐसे पुरूष को नहीं देख रहा हूँ, जो मुझे क्रोध से दूर हटा दे । इसी प्रकार मैंने जो अपनी बुद्धि में शत्रुओं के संहार का यह दृढ निश्चय कर लिया है, यही मुझे अच्छा प्रतीत होता है। जब संदेशवाहक दूत मेरे मित्रों की पराजय और पाण्डवों की विजय का समाचार कहने लगते हैं, तब वह मेरे हृदय को दग्ध-सा कर देता है । मैं तो आज सोते समय शत्रुओं का संहार करके निश्चिन्त होने पर ही विश्राम करूँगा और नींद लूँगा ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा की मंत्राविषयक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।।4।।
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