महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 7 श्लोक 32-46

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सप्‍तम (7) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व: सप्‍तम अध्याय: श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद

कितनों के अंग नील और पिगंलवर्ण के थे। कितनों ने अपने मस्‍तक के बाल मुँड़वा दिये। कितने ही सुनहरी प्रभा से प्रकाशित हो रहे थे। वे सभी पार्षद हर्ष से उत्‍फुल्‍ल हो मेरी, शंख, मृदंग, झॉंझ, ढोल और गोमुख बजा रहे थे। कितने ही गीत गा रहे थे और दूसरे बहुत से पार्षद नाच रहे थे । वे महारथी भूतगण उछलते, कूदते और लांघते हुए बड़े वेग से दौड़ रहे थे। उनमें से कितने तो माथे मुँड़ाये हुए थे और कितनों के सिर के बाल हवा के झोंके से ऊपर की ओर उठ गये थे । वे मतवाले गजराजों के समान बारंबार गर्जना करते थे। उनके हाथों में शूल और पट्टिश दिखायी देते थे। वे घोर रूपाधारी और भयंकर थे । उनके वस्‍त्र नाना प्रकार के रंगों में रँगे हुए थे। वे विचित्र माला और चन्‍दन से अलंकृत थे। उनहोंने रत्‍ननिर्मित विचित्र अंगद धारण कर रखे थे और उन सबके हाथ ऊपर की ओर उठे हुये थे। वे शूरवीर पार्षद हठपूर्वक शत्रुओं का वध करने में समर्थ थे। उनका पराक्रम असह्य था। वे रक्‍त और वसा पीते तथा आंत और मांस खाते थे । कितनों के मस्‍तक पर शिखाएं थी। कितने ही कनेरों के फूल धारण करते थे। बहुतेरे पार्षद अत्‍यन्‍त हर्ष से खिल उठे थे। कितनों के पेट बठलोई या कड़ाही के समान जान पड़ते थे। कोई बहुत नाटे, कोर्इ बहुत मोट, कोई बहुत लंबे और कोई अत्‍यन्‍त भयंकर थे । कितनों के आकार बहुत विकट थे, कितनों के काले-काले और लंबे ओठ लटक रहे थे, किन्‍हीं के लिंग बड़े थे तो किन्‍हींके अण्‍डकोष । किन्‍हीं के मस्‍तकों पर नाना प्रकार के बहुमूल्‍य मुकुट शोभा पाते थे, कुछ लोग मथमुंडे थे और कुछ जटाधारी । वे सूर्य, चन्‍द्रमा, ग्रह और लक्षत्रों सहित सम्‍पूर्ण आकाश मण्‍डल को पृथ्‍वी पर गिरा सकते थे और चार प्रकार के समस्‍त प्राणि-समुदाय का संहार करने में समर्थ थे । वे सदा निर्भय होकर भगवान शंकर के भ्रूभंग को सहन करने वाले थे। प्रतिदिन इच्‍छानुसार कार्य करते और तीनों लोकों के ईश्‍वरों पर भी शासन कर सकते थे । वे पार्षद नित्‍य आनन्‍द में मग्‍न रहते थे, वाणी पर उनका अधिकार था। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्‍या और द्वेष नहीं रह गये थे। वे अणिमा-मीहिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्‍वर्य को पाकर भी कभी अभिमान नहीं करते थे । साक्षात भगवान शंकर भी प्रतिदिन उनके कर्मों को देखकर आश्‍चर्यच‍कित हो जाते थे। वे मन, वाणी और क्रियाओं द्वारा सदा सावधान रहकर महादेव जी की आराधना करते थे । मन, वाणी और कर्म से अपने प्रति भक्ति रखने वाले उन भक्‍तों का भगवान शिव सदा औरस पुत्रों की भांति पालन करते थे। बहुत-से पार्षद रक्‍त और वसा पीकर रहते थे। वे ब्रह्मद्रोहियों पर सदा क्रोध प्रकट करते थे।अन्‍न, सोमलता रस, अमृत और चन्‍द्रमण्‍डल- ये चार प्रकार के सोम हैं, वे पार्षदगण इनका सदा पान करते हैं। उन्‍होंने वेदों के स्‍वाध्‍याय, ब्रह्मचर्य पालन, तपस्‍या और इन्द्रिय संयम के द्वारा त्रिशूल-चिह्नित भगवान शिव की आराधना करके उनका सायुज्‍य प्राप्‍त कर लिया है । वे कहाभूतगण भगवान शिव के आत्‍मस्‍वरूप हैं, उनके तथा पार्वती देवी के साथ भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी महेश्‍वर यज्ञ-भाग ग्रहण करते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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