महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-14
षष्ठ (6) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व )
संसाररुपी वन के रुपक का स्पष्टीकरण
धृतराष्ट्र बोले–वक्ताओं में श्रेष्ठ विदुर ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है ! उस ब्राह्मण को तो महान् दु:ख प्राप्त हुआ था । वह बड़े कष्ट से वहाँरह रहा था तो भी वहाँ कैसे उसका मन लगता था और कैसे संतोष होता था ? कहाँ है वह देश, जहाँ बेचारा ब्राह्मण ऐसे धर्म संकट में रहता है ? उस महान् भय से उसका छुटकारा किस प्रकार हो सकता है ? यह सब बताओ; फिर हम सब लोग उसे वहाँ से निकालने की पूरी चेष्टा करेंगे । उसके उद्धार के लिये मुझे बड़ी दया आ रही है । विदुरजी ने कहा–राजन् ! मोक्षतत्व के विद्वानों द्वारा बताया गया यह एक दृष्टान्त है, जिसे समक्षकर वैराग्य धारण करने से मनुष्य परलोक में पुण्य का फल पाता है । जिसे दुर्गम स्थानवन कहा गया है, यह संसार ही गहन स्वरुप है । जो सर्प कहे गये हैं, वे नाना प्रकार के रोग हैं । उस वनकी सीमा पर जो विशालकाय नारी खड़ी थी, उसे विद्वान् पुरुष रुप और कान्ति का विनाश करने वाली वृद्धावस्था बताते हैं । नरेश्वर ! उस वन में जो कुआँ कहा गया है, वह देहधारियोंका शरीर है । उसमें नीचे जो विशाल नाग रहता है, वह काल ही है । वही सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करने वाला और देहधारियों का सर्वस्व हर लेने वाला है । कुएँ के मध्य भाग में जो लता उत्पन्न हुई तबायी गयी है, जिसको पकड़कर वह मनुष्य लटक रहा है, वह देहधारियों के जीवन की आशा ही है । राजन् ! जो कुएँ के मुखबन्ध के समीप छ: मुखोंवाला हाथी उस वृक्षकी ओर बढ़ रहा है, उसे संवत्सर माना गया है । छ: ऋतुएँ ही उसके छ: मुख हैं और बारह महीने ही बारह पैर बताये गये हैं । जो चूहे सदा उद्यत रहकर उस वृक्ष को काटते हैं, उन चूहों को विचार शील विद्वान् प्राणियों के दिन और रात बताते हैं । और जो-जो वहाँ मधुमक्खियाँ कही गयी हैं,वे सब कामनाएँ हैं । जो बहुत-सी धाराएँ मधु के झरने झरती रहती हैं, उन्हें कामरस जानना चाहिये, जहाँ सभी मानव डूब जाते हैं । विद्वान पुरुष इस प्रकार संसार चक्र की गति को जानते हैं; इसीलिये वे वैराग्य रुपी शस्त्र से इसके सारे बन्धनों को काट देते हैं ।
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