मार्कुस फेबियस क्विंतीलियन
मार्कुस फेबियस क्विंतीलियन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 254 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परमेश्वरीलाल गुप्त |
मार्कुस फेबियस क्विंतीलियन (30-96 ई.)। रोम का प्रख्यात वक्तृत्वशास्त्री। उसका जन्म स्पेन के कैलाग्ररिस नामक स्थान में हुआ था। उसका परिवार निपुण वक्ताओं के लिये प्रख्यात था। उसने रोम में शिक्षा प्राप्त की थी । शिक्षा प्राप्तकर वह स्पेन लौट गया था और वहाँ कदाचित् गेल्बा की सेवा में रहा। उन्हीं के साथ 68 ई. में रोम वापस आया और बीस वर्षों तक वक्तृत्वकला के प्राध्यापक का पद स्थापित किया। पीछे डोमीटिथन के शासनकाल में व राजकुमारों का शिक्षक रहा। कभी कदा वह वकालत भी करता था। उसने भाषणकला के ्ह्रास के कारणों पर एक पुस्तक लिखी थी जो अब अप्राप्य है। उसकी उपलब्ध और प्रख्यात रचना है-‘ट्रेनिंग आफॅ ए ओरैटर’ (वक्ता की ट्रेनिंग)। यह ग्रंथ न केवल भाषणकला से संबंध रखता है वरन् उसमें बचपन से आरंभ कर अंत तक शिशु का साहित्य और सदाचार दोनों क्षेत्रों की शिक्षा का विवेचन है। उनमें उसकी कितनी ही ऐसी बातें कही हैं जो आज अत्याधुनिक शिक्षापद्धति के रूप में कही जा रही है; किंतु उसमें दोष यह है कि उसमें उसकी दृष्टि अच्छे भाषण की क्षमता और नई बात कहने की योग्यता तक ही सीमित रही है। इस सीमा के भीतर उसने जो कुछ भी कहा है, शिष्ट और अच्छे ढंग से कहा है। वह भाषण शैली में चातुर्य और असत्य का विरोधी था, जो तत्कालीन वक्ताओं में प्राय: देखने में आता था।
उसका कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व का विकास और चरित्र का निर्माण होना चाहिए। प्रारंभिक शिक्षा का उत्तरदायित्व मातापिता का है अत: माता पिता को चाहिए कि वे अपने बालकों का प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करें और उनके सर्वांगीण विकास में सहायक हों। उसने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा उसकी रूचि और परिस्थिति के अनुकूल होने से व्यक्तित्व का विकास शीघ्रता से होता है। स्कूलों में बच्चों को दंड देने की प्रणाली का उसने तीव्र विरोध किया है। उसका कहना था-शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध मधुर होना चाहिए। उसने शिक्षा के रोचक बनाने और साहित्य, दर्शन, इतिहास, गणित आदि के अध्ययन पर बल दिया है।
क्विंतीलियन रोमी शिक्षा के स्वर्णयुग का शिक्षाशास्त्री था। अत: उसके शिक्षासिद्धांतों का पालन हुआ और इसके फलस्वरूप रोमी समाज में नैतिकता की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा। उसने शिक्षा द्वारा मानव समाज में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया है। वह बार बार नैतिकता और चरित्रनिर्माण पर जोर देता था; उसका विश्वास था कि इन गुणों के बिना कोई भी राष्ट्र दीर्घजीवी नहीं हो सकता था। अत: उसका कहना था कि रोम साम्राज्य का अंत नैतिक पतन से होगा। क्विंतीलियन दूरदर्शी था। वह आनेवाले युगों की कल्पना कर सकता था। उसके शिक्षासिद्धांत ऐसे थे जो 1500 वर्ष बाद भी उपयोगी सिद्ध हुए। योरोपीय शिक्षा के इतिहास में 15वीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक क्विंतीलियन के विचारों को प्राधान्य था।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सीताराम जायसवाल