लक्ष्मी स्तुति (इन्द्र द्वारा)

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विष्णु पुराण[१] में वर्णित इन्द्र द्वारा 'लक्ष्मी स्तुति'
इन्द्र

नमस्तस्यै सर्वभूतानां जननीमब्जसम्भवाम्
श्रियमुनिन्द्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम्॥

हे सभी जीवों की जननी, हे जल में से प्रकट हुई देवी,[२] हे कमल दल के समान विकसित आँखों वाली, श्री विष्णु भगवान के वक्ष स्थल पर स्थित माता आप को नमस्कार है।

पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम्
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियाम्यहम्॥

कमल आसन वाली, कमल जैसे हाथों वाली, कमल के पत्तों जैसी आँखों वाली, हे पद्म (कमल) मुख देवी, आप की मैं वन्दना करता हूँ, हे पद्मनाभ[३] की प्रिय देवीं।

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी
सन्धया रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती॥

आप सिद्धि हैं, आप ही स्वधा हैं, आप स्वाहा हैं, आप ही सुधा हैं, आप ही इस संसार को पवित्र करने वाली हैं । आप ही सन्ध्या हैं, आप ही रात्रि हैं, आप प्रभा हैं, आप ही भूति, मेधा, श्रद्धा हैं, आप ही सरस्वती हैं।

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी॥

आप ही हे शुभे (शोभने), यज्ञ विद्या हैं, महा विद्या हैं, गुह्य विद्या हैं । आप ही, हे देवी, आत्म विद्या हैं - मुक्ति फल देने वाली।

आन्वीक्षिकी त्रयीवार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च
सौम्यासौम्येर्जगद्रूपैस्त्वयैतद्देवि पूरितम्॥

आप ही त्रयीवार्ता हैं (वेद रुप ज्ञान), आप ही दण्ड नीति आदि भी हैं । यह संसार आप के ही सौम्य और असौम्य रुपों से परिपूर्ण है।

का त्वन्या त्वमृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः॥

हे देवी, आप के अतिरिक्त कौन सभी यज्ञों के सार रुप, देवों के देव, योगियों के चिन्तनीय, गदाधारी भगवान हरि के वक्ष स्थल में निवास कर सकता है।

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम्
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम्॥

हे देवी, आप ने जब इन तीन भुवनों[४] को त्याग दिया था तो सब नष्ट हो गया था, आप ने ही फिर से इसे जीवन दिया है।

दाराः पुत्रास्तथाऽऽगारं सुहृद्धान्यधनादिकम्
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम्॥

हे महाभागे, जिन लोगों पर आप की दृष्टि होती है, उन्हें नित्य (सदा ही) पत्नी, पुत्र, घर बार, सुहृद (अन्य घर वाले, संबंधी), धन आदि प्राप्त होते है।

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम्
देवि त्वदृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम्॥

हे देवि, जिन पुरुषों पर आप की दृष्टि है, उनके लिये अरोग्य शरीर, ऍश्वर्य, विपक्षियों का क्षय होना और सुख की प्राप्ति कठिन नहीं है।

त्वमम्बा सर्वभूतानां देवदेवो हरिः पिता
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्वयाप्तं चराचरम्॥

आप सभी जीवों की माता हैं और देवाधिदेव हरि पिता हैं । आप के द्वारा और विष्णु भगवान के द्वारा, हे अम्ब,[५] यह संपूर्ण चर-अचर जगत व्याप्त है।

मनःकोशस्तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम्
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि॥

हे सर्व पावनी, आप मेरे कोश को, मेरे पशुशाला को, मेरे घर को, और मेरे शरीर, देह आदि को कभी मत त्यागिये।

मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गान्मा पशून्मा विभूषणम्
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलाश्रये॥

मेरे पुत्रों को, मेरे घरवालों (सुहृदों) को, मेरे पशुओं को, मेरे विभूषणों को कभी न त्यागें हे देवी, विष्णु वक्ष स्थलाश्रेय।[६]

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयाऽमले॥

सत्त्व, सत्य, शौच, आभा तथा शील आदि जितने भी गुण हैं, वे सब उस नर को त्याग देते हैं जिसे आप त्याग देती हैं हे अमले (निर्मल)।

त्वयाऽवलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि॥

आप द्वारा देखे जाते मनुष्य में शील आदि सभी गुण, कुल, ऐश्वर्य उत्पन्न हो जाते हैं, भले ही वो पहले निर्गुण क्यों न हो।

सश्लाघ्यः सगुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान्
स शूरः सचविक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः॥

वह प्रशंसनीय है, गुणी है, धन्य है, कुलवान है, बुद्धिमान है, शूर है, विक्रान्त है, जिस पर हे देवी! आप की दृष्टि है।

सद्योवैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः
पराङ्गमुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे॥

उस पुरुष के सभी गुणों का अन्त हो जाता है, शील आदि संपूर्ण गुणों का जिस से आप मुख फेर लेती हैं। हे जगद्धात्री! हे विष्णु प्रिय।[७]

न ते वर्णयितुं शक्तागुणञ्जिह्वाऽपि वेधसः
प्रसीद देवि पद्माक्षि माऽस्मांस्त्याक्षीः कदाचन॥

हे देवी, आप के गुणों की गणना तो ब्रह्मा जी भी नहीं कर सकते । मुझ पर प्रसन्न होईये हे देवी, हे पद्माक्षि[८]! कभी मुझे त्यागियेगा नहीं।

पराशर

एवं श्रीः संस्तुता स्मयक् प्राह हृष्टा शतक्रतुम्
श्रृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज॥

इन्द्र देव ने श्री लक्ष्मी मां की इस प्रकार स्तुति की। इस पर प्रसन्न होकर सर्व व्यापक देवी ने सभी देवताओं द्वारा भी सुने जाते हुये इन्द्र से यह कहा।

लक्ष्मी

परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरेः
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाऽहं तवागता॥

हे इन्द्र, मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देने के लिये आई हूँ।

इन्द्र

वरदा यदिमेदेवि वरार्हो यदिवाऽप्यहम्
त्रैलोक्यं न त्वया त्याच्यमेष मेऽस्तु वरः परः॥
स्तोत्रेण यस्तवैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तुवरो मम॥

हे देवी, यदी आप मुझे वरदान देना चाहती हैं और यदि मैं आपके वरदान के लायक हूँ, तो हे देवी, आप मुझे सबसे पहले यह वर दीजिये की आप इस त्रिलोकी को फिर नहीं त्यागेंगी। और मुझे एक और वर दीजिये हे देवी। जो भी मेरे इस स्तोत्र द्वारा आप की स्तुति करेगा, आप उसे भी कभी नहीं त्यागेंगीं।

लक्ष्मी

त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव
दत्तो वरो मयाऽयं ते स्तोत्राराधनतुष्टया॥
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः
स्तोष्यते चेन्न तस्याहं भविष्यामि पराङ्गमुखी॥

हे वासव (इन्द्र), मैं तुम्हारे इस स्तोत्र द्वारा अराधना करने से संतुष्ट हुँ इसलिये मैं तुम्हें यह वर देती हूँ की मैं इस त्रिलोकि को नहीं त्यागूँगी । और यह भी की जो मानव सांयकाल और प्रातःकाल के समय इस स्तोत्र द्वारा मेरी स्तुति करेगा, उससे भविष्य में मैं कभी मुख नहीं फेरूँगी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णु पुराण (भारतकोश पर पढ़ें)
  2. अमृत मंथन के समय (भारतकोश पर पढ़ें)
  3. भगवान विष्णु
  4. तीन लोकों
  5. माता
  6. विष्णु के वक्ष स्थल में स्थित देवी
  7. विष्णु वल्लभे
  8. पद्म - कमल, अक्षि - आँखें)

बाहरी कड़ियाँ

भारतकोश पर पढ़ें : लक्ष्मी, वरदान